Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 368
________________ 368 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || 1. उवगरण उप्पायणया (उपकरण उत्पादन)- उपकरण संबंधी कर्तव्यपालन। गवेषणा करके वस्त्र, पात्र, उपकरण प्राप्त करना, फिर सुरक्षित रखना, जो जिसके योग्य हो उसे गुरु आज्ञा से यथायोग्य देना। 2. साहिल्लणया (सहायक होना)- गुरुजनों के अनुकूल हितकारी वचन बोलना, शारीरिक हलन चलन विवेक से करना, सेवा करना, रुचिकर व्यवहार करना। 3. वण्णसंजलणया (गुणानुवाद)- आचार्यादि का गुणकीर्तन करना। अवर्णवादी को प्रत्युत्तर देकर निरुत्तर करना, सेवा-भक्ति करना एवं यथोचित आदर देना। 4. भारपच्चोरुहणया (भार प्रत्यारोहण)- आचार्य के कार्यभार को सम्हालना, धर्म-प्रचार, शिष्यों को शुद्ध आचार का अभ्यास कराना, विवाद निराकरण एवं गण के साधु-साध्वियों की संयम समाधि की उत्तरोत्तर वृद्धि के प्रयास करना। आचार्यों की अविनय आशातना का दुष्परिणाम धम्मज्जियं च ववहारं बुन्द्रेहायरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छड ।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 1, गाथा-42 धर्मार्जित व्यवहार सदा आचार्यों ने आचरित किया। गहीं को प्राप्त नहीं होता, जिसने वैसा आचार किया। तीर्थंकर के अभाव में साधक के पथ प्रदर्शक आचार्य की जो अविनय आशातना और अवहेलना करते हैं उनके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन 'विनय श्रुत' में कहा गया है, आज्ञा पालन और सेवा शुश्रूषा से दूर भागने वाला साधु मिथ्या आलोचक, अविनीत, दुर्बोध होकर सभी प्रकार के उत्तम लाभों से वंचित रहता है एवं दुष्परिणाम भोगता है। दूषित विचार आचार स्वभाव वाले शिष्य को “जहा सुणी पूइ कण्णी"(उत्तराध्ययन, प्रथम अध्ययन, गाथा-4) सड़े कान वाली कुतिया की तरह गण, गच्छ, संघ सभी से तिरस्कार पूर्वक निकाल दिया जाता है। उत्तम शील को छोड़कर आचार्य का अविनय करने वाला दुःशील में रमण करता है। (उत्तरा. 1.5) दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन-9 विनय समाधि, उद्देशक-1 में गुरु एवं आचार्य की अविनय आशातना के दुष्परिणाम दिए गए हैं, यथा जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुट ति णच्चा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करंति आसायणं ते गुरुणं ।। (गाथा-2) जो शिष्य गुरु को अल्पश्रुत और मंद बुद्धि जानकर गुरु की हीलना करते हैं वे अपने ज्ञानादि भाव की कमी करते हुए मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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