Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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|| 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी
387 शरीर में समता, शान्ति और ज्ञान-ध्यान की प्रवृत्ति निर्बाध गति से चलती रहे, इसके लिए भोजन-पानी की आवश्यकता होती है। वैसे तो यह क्षुधाग्नि समस्त संसारी प्राणियों के साथ जुड़ी हुई है, और सभी जीव आहार-प्राप्ति के लिए अपने-अपने स्तर पर, अपने ढंग से प्रयास करते हैं। किन्तु जैन साधु-साध्वी 'येन-केन प्रकारेण' आहार-पानी प्राप्त कर उस अग्नि को शान्त नहीं करते, अपितु वे वीतराग भगवंतों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार क्षुधा-शान्ति का प्रयास करते हैं। .
आहार-प्राप्ति की निर्दोष विधि का उल्लेख दशवैकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन में बहुत ही सुन्दर ढंग से उपलब्ध होता है जिससे 'मधुकरी' और 'गोचरी' के नाम से सम्पूर्ण जैन जगत भली प्रकार से परिचित है। यह विधि इतनी निर्दोष होती है कि श्रमण संख्या कितनी भी हो, पर वे साधु-साध्वी, किसी पर भी भार नहीं होते, और उनके खाने-पीने का खर्च भी किसी के लिए असह्य और कष्टप्रद नहीं होता। उपर्युक्त नियम एवं प्रक्रिया साधक के लिए आहार-पानी तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत इनके अतिरिक्त साधु-जीवन में कल्पनीय वस्तुओं जैसे वस्त्र, पात्र, शय्या, पाट-पाटला आदि की पूर्ति के लिए भी अनिवार्यतः पालनीय होते हैं, और वे सब वस्तुएँ गृहस्थों के घरों से याचनापूर्वक ही प्राप्त की जाती हैं।
एषणा समिति का अर्थ-परिभाषा-स्वरूप-महत्त्व एवं उपयोगिता आदि के विवेचन के पश्चात् एषणा समिति के प्रकार अर्थात् भेदों की विस्तार से जानकारी अपेक्षित है, क्योंकि दोषों की जानकारी होने पर ही उनसे बचाव करना संभव हो सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 24 की गाथा संख्या 11 के प्रथम एवं द्वितीय चरण में एषणा समिति के तीन प्रकार अथवा तीन भेदों का उल्लेख है, यथा
“गवेसणाट गहणे य, परिभोगेसणा य जा।
आहारोवहिसेज्जाट, एए तिणि विसोहए।" अर्थात् (1) गवेषणा, (2) ग्रहणैषणा और (3) परिभोगैषणा। इन तीनों प्रकार की एषणा का पालन तभी माना जा सकता है जबकि इनसे लगने वाले दोषों को टाला जाय। अतः इनमें से प्रत्येक का संक्षेप में विवचेन एवं विशुद्धि का परिचय निम्न प्रकार से अंकित किया जा रहा है। (1) गवेषणा - ‘गवेषणा' का प्रचलित भाषा में शाब्दिक अर्थ 'खोज करना' होता है। अतः गवेषणा का आगमिक भाषा में व्यावहारिक अर्थ है, साधु-साध्वी द्वारा शुद्ध आहारादि की खोज करना। खोजने पर ही इच्छित वस्तु की प्राप्ति संभव है, कहावत भी है-“जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।" साधक की साधना में आहार, पानादि का विशेष महत्त्व रहा है, जैसा कि लोकोक्ति प्रसिद्ध है- "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पीवे पाणी, वैसी बोले वाणी।" ये पंक्तियाँ आहारादि की शुद्धता का महत्त्व प्रतिपादित कर रही है। साधना की सफलता को भोजन की शुद्धता प्रभावित करती है। इसीलिए भगवान ने साधु-साध्वी द्वारा गोचरी हेतु पधारते समय, गोचरी ग्रहण करने से पूर्व ध्यान रखने योग्य निर्देश फरमाये हैं- जिनकी संख्या 16 है। ये उद्गम के दोष कहलाते हैं। ये दोष गोचरी बहराने वाले दाता
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