Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 391
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी बोलों के रूप में एषणा समिति का स्वरूप प्रकट करते हुए उसका सार संक्षेप में इस प्रकार रखा हैःएषणा समिति - शुद्ध एषणीय 42 दोष टालकर आहार- पानी ग्रहण करे, 5 दोष टालकर भोगवे । एषणा समिति को 4 बोलों से पहचानें। (1) द्रव्य से, (2) क्षेत्र से, (3) काल से और (4) भाव से । (1) द्रव्य से - एषणा के तीन प्रकार - ( 1 ) गवेषणा ( ग्रहण करने से पहले) 16 उद्गम के, 16 उत्पादन के 32 दोष टालकर शुद्ध आहार की गवेषणा करे। (2) ग्रहणैषणा ( ग्रहण करते समय ) - ग्रहणैषणा के 10+गवेषणा के 32=42 दोष टालकर लेवे। (3) परिभोगैषणा / ग्रासैषणा ( भोगते समय के ) - 5 दोष + 42 = 47 दोष टालकर भोगवे । (2) क्षेत्र से - दो कोस उपरान्त ले जाकर आहार नहीं भोगे । ( 3 ) काल से पहले प्रहर का आहार चौथे प्रहर में नहीं भोगे । - (4) भाव से - राग-द्वेष रहित व मांडला के 5 दोष टाल कर भोगे । उक्त चार बोलों के माध्यम से एषणा समिति के स्वरूप का परिचय संक्षेप में ज्ञात होता है। आहारादि के उद्गम आदि 47 दोष प्रसिद्ध हैं । पूर्वाचार्यों ने 'पिण्ड निर्युक्ति' आदि अनेक ग्रंथों में इनका एक ही स्थान पर वर्णन किया है। ये दोष आगमों के मूल पाठों में भी वर्णित हैं, किन्तु एक स्थान पर सभी उपलब्ध नहीं होते । निर्युक्ति आदि ग्रंथों में एक साथ दिये हुए होने से एषणा के 47 दोष ही प्रचलित हैं, जो सभी साधकों व श्रावकों के अधिक परिचय में हैं । किन्तु उक्त 47 दोषों के अतिरिक्त भी आगमों में अन्य कई दोषों का वर्णन है जिन्हें ज्ञानी महापुरुषों ने उनके नामों को संक्षिप्त विवेचन के साथ आगमिक संदर्भ में अंकित करने की कृपा की है। इनकी संख्या लगभग 64 है। विस्तार भय से यहाँ केवल सान्दर्भिक आगम-सूत्रों के अंतर्गत समाविष्ट दोषों की नामावली के अंकन की ही भावना है, उनका अर्थ विवेचन एवं संदर्भ साहित्य के अध्ययन, शतक, उद्देशक, चूलिका, गाथा इत्यादि का परिचय नहीं । केवल नामों का अंकन, मात्र नाम - परिचय की दृष्टि से प्रस्तुत है। दशवैकालिक सूत्र के अंतर्गत समाविष्ट दोषों के नाम: 1. दानार्थ 2. पुण्यार्ण, 4. श्रमणार्थ 5. नियाग, 8. किमिच्छ, 11. पूर्व कर्म, 14. एलग, 17. वच्छक, 20. गुर्विणी, 7. राज पिण्ड, 10. बहुउज्झि 13. नशीली वस्तु, 16. दारग, 19. चलकर, Jain Educationa International 391 3. वनीपक, 6. शय्यातर पिण्ड, 9. संघट्ट 12. पश्चात् कर्म, 15. श्वान, 18. अवगाहक, 21. स्तनपायी, For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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