Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 407
________________ 407 || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी वर्तमान में यह कहावत पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही है। अशुद्ध और अशुभ भाव से बहराये हुए आहार-पानी का प्रभाव हमारे संत-साध्वीमण्डल के दिलो-दिमाग पर भी पड़ने लगा है। कुछ संत-साध्वी तो कठिन श्रमणाचार के पालन से भयभीत हो पुनः गृहस्थ बनने लगे हैं, तो कुछ चाहकर भी जैन भागवती-दीक्षा लेने से हिचकिचाते हैं। घटता आचार कुछ सम्प्रदायों में तो बदलते परिवेश को देखकर भगवान् महावीर के द्वारा बताये 52 अनाचारों की पालना में परिवर्तन कर दिया गया है। कुछ सम्प्रदायों में पद-यात्रा के स्थान पर कार व वायुयान द्वारा यात्राएँ होने लगी हैं तथा श्रमण नंगे पांव न रहकर कपड़े व प्लास्टिक के जूते पहनने लगे हैं। धोवण के स्थान पर नल का पानी सचित्त-अचित्त जो भी श्रावक बहरावें, ले लेते हैं, तो विहार में टिफिन-व्यवस्था भी प्रारम्भ कर दी गई है, तो कुछ सम्प्रदायों में पंखे, बिजली तथा माईक का प्रयोग होने लगा है। ऐसे में हमारी श्राविका बहिनें, अपने श्राविकाचार को बिल्कुल ही भुलाती जा रही हैं। समझ में नहीं आता, कैसे चलेगा भगवान् महावीर का यह जैन धर्म। जहाँ जैन परिवारों में सूर्य की साक्षी में भोजन किया जाता था तथा सूर्य के उदय होने से पूर्व मुँह में पानी भी नहीं डाला जाता था, वहीं आज मशीनरी युग में 'अर्थ' की होडा-होडी में हमारे श्रावकगण रात्रि 11-12 बजे तक भोजन करते हैं। रात्रि एक बजे तक सोते हैं। प्रात 9-10 बजे उठते हैं। 11 बजे तक चाय-नाश्ता लिया जाता है तो ऐसी स्थिति में जरा विचार कीजिये, कहाँ से मिलेगा जैन श्रमणों के अनुकूल जैन संत-साध्वी जी को प्रासुक एषणीय आहार-पानी? कैसे बढ़ेगी हमारे निर्ग्रन्थ गुरुओं की संख्या? जैन संतों को किस वस्तु की जरूरत है, वे मुँह से कहते नहीं, हमारे श्रावक धन कमाने में लगे हैं, फिर महिलाएं भी नौकरी पेशा होने के कारण वे भी नौकरी पर आश्रित रहती हैं। एकल परिवार में वृद्ध अनुभवी लोगों का साया उन पर रहता नहीं, अतः संतों का उपदेश उन्हें अच्छा लगता है. पर उनकी जीवन शैली से वे परिचित नहीं होते। श्रावक कहलाने वाले श्रावकाचार अपनाते नहीं। संत अच्छे लगते हैं, पर जिगर के टुकड़े महाराज को बहराते नहीं। बेटे-बेटी बहराने की बात तो दूर रही, पर शुद्ध आहारपानी बहराना भी नहीं जानते। ऐसी स्थिति में समता के पुजारी निर्ग्रन्थ तो सहज में ऊणोदरी तप कर अपनी आध्यात्मिक यात्रा करते रहते हैं, पर यह कब तक? जरा आप भी सोचिये- ऐसा क्यों? . नामधारी श्रावकों की संख्या में तो निरन्तर वृद्धि हो रही है, परन्तु श्रमणाचार एवं श्रावकाचार से अनभिज्ञ श्रावक ही अधिक हैं। समय रहते हम श्रावक/श्राविकाओं को सजग होना होगा। हमें भगवान् महावीर द्वारा बनाये श्रावक-धर्म को जीवन में उतारना होगा। तभी हम अपने कर्तव्य का पालन करते हुए श्रमणाचार के शुद्धपालन में सहयोगी बन सकते हैं। -पूर्व सचिव, श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जैन कॉलोनी, राइकाबाग, जोधपुर (राज.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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