Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 384
________________ 384 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || इनका स्वरूप अत्यन्त व्यापक और विस्तृत है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंतों के श्रीमुख से निसृत अर्थ रूप प्रवचनों एवं ज्ञानी गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित आगम-शास्त्रों में इनका विशद उल्लेख उपलब्ध है। पश्चाद्वर्ती नियुक्तिकार, भाष्यकार व टीकाकार, ज्ञानगुण सम्पन्न पूज्य आचार्य भगवन्तों ने अपनी बहु आयामी व्याख्याओं/ रचनाओं में इनका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए सारगर्भित विस्तृत प्रतिपादन किया है- जो मूल आगमों के संदर्भ में मौलिकता लिए हुए साधक समुदाय के उत्थान मार्ग को आलोकित करता है। परिचयात्मक दृष्टि से यहाँ ‘समिति-गुप्ति' या 'अष्ट प्रवचन-माता' का स्वरूप व उपयोगिता का संक्षिप्त विवेचन आगमिक संदर्भो से कराया जाना संगत प्रतीत होता है। चरम तीर्थंकर भगवान महावीर की अंतिम देशना, उत्तराध्ययन सूत्र का चौबीसवाँ अध्ययन सम्पूर्ण रूप से इसी विषय के भावों को अंतर्निहित किये हुए है। नाम-परिचय, भेद-प्रभेद एवं महत्त्व का प्रतिपादन अतिविशिष्टता युक्त होने से उल्लेखनीय है। उक्त अध्ययन की गाथा प्रथम एवं द्वितीय में उनका नामोल्लेख कर शेष 25 गाथाओं में भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से वर्णन दिया हुआ है। इस अध्ययन की प्रथम गाथा के प्रथम चरण में 'अट्ठपवयण' गाथाओं के उल्लेख कर- इसे 'अष्ट प्रवचन माता' के नाम से नामांकित किया है। वहीं इसी गाथा के द्वितीय चरण में ‘समिई गुत्ति' के नाम का भी कथन उपलब्ध होता है। विवेचनकार महापुरुषों ने जिनेश्वर द्वारा कथित द्वादशांग प्रवचन का सार इसी में समाविष्ट माना है। आत्मा की प्रवृत्ति, गुप्तियों में भी निहित है अतः गाथा 3 के प्रथम चरण में ‘एयाओ अट्ठ समिइओ' का उल्लेख कर गुप्तियों का भी इन्हीं में ग्रहण करते हुए ‘आठ समितियाँ' भी मान्य की है। इस कारण यहाँ ‘समिति' का महत्त्व व्यापक स्तर पर होने से उसी के अनुरूप चिंतन व लेखन करना इष्ट प्रतीत होता है। ज्ञातपुत्र प्रभु महावीर ने अपनी वागरणा, साररूप संक्षिप्त विधि में अर्थ रूप वागरित की, जिसे गणधरों ने उसे सूत्र रूप में निबद्ध कर भव्यजनों के कल्याणार्थ संघ को समर्पित किया। पूर्वधारी एवं पश्चात् वर्ती आचार्यों ने गृहीत गहन-गंभीर ज्ञान के आधार पर मूल भावनाओं (हार्द) को यथावत् सुरक्षित रखते हुए उन पर तत्कालीन प्रचलित मान्य जनभाषा में भाष्य-टीकाएँ लिखकर उन्हें सर्वजनोपयोगी बनाने की कृपा की। उत्तराध्ययन सूत्र के ‘समिइओ चउवीसइमं अज्झयणं' में केवल समिति-गुप्ति का ही अधिकार चलता है। अनेक अधिकारी विद्वान् महापुरुषों ने इस पर अपनी टीकाएँ लिखी हैं, जिसकी सम्पूर्ण विषय सामग्री का सार समरूपता लिये हुए है। सार-संक्षेप इस प्रकार है इस अध्ययन में साधु द्वारा अष्ट प्रवचन माता के पालन के विषय में विधि-विधान का निरूपण किया गया है। संयमी साधकों के जीवन-रक्षण के लिए समिति-गुप्ति का पालन अवश्य करणीय है। इनका पालन संयमी-जीवन को सुरक्षित ही नहीं रखता, प्रत्युत उसका संरक्षण और संवर्द्धन भी करता है। इनका यथा विधिपालन कर्ता साधक चतुर्गति रूप संसार-परिभ्रमण से सर्वथा मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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