Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 382
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 382 एषणा समिति श्री सौभाग्यमल जैन संयम में प्रवृत्ति हेतु आगम में पाँच समितियों का प्रतिपादन हुआ है। इनमें एषणा समिति तीसरी समिति है । आहार, जल आदि की निर्दोष रूप से प्राप्ति एवं समतापूर्वक उनका उपभोग या परिभोग एषणा समिति का प्रतिपाद्य है। गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं परिभोगैषणा के रूप में इसके मुख्यतः तीन भेद हैं, जिनमें 47 दोषों को टालकर आहार, जल, औषधि, वस्त्र, मकान, उपधि आदि का श्रमण-श्रमणियों द्वारा संयम - रक्षार्थ सेवन किया जाता है। लेखक ने एषणा समिति के सभी पक्षों की आलेख में चर्चा की है । - सम्पादक अगाध करुणासिंधु, जगत कल्याणक परमोपकारी, विश्ववंद्य, चरम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने अपनी भव भय हारिणी, दुःख विनाशिनी अमृतोपम वागरणा में “दुविहे चरित्तधम्मेअगारचरित्तधम्मे, अणगारचरित्तधम्मे चेव । ” के भाव फरमाते हुए अगार और अणगार धर्म का निरूपण किया। इस द्विविध चारित्र धर्म में (1) अगार धर्म के अन्तर्गत चतुर्विध संघ के उन साधकों का समावेश हुआ जो श्रावक-श्राविका के नाम से अभिहित हुए। यह वर्ग सद्गृहस्थ का जीवन यापन करने के साथ तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित 5 अणुव्रतों, 3 गुणव्रतों और 4 शिक्षाव्रतों का पालन, तीन मनोरथ व चौदह नियमों का चिन्तन आदि करते हुए जीवन-पथ को प्रशस्त एवं आत्म-साधना में विकासोन्मुखी बनाता है। इसके लिए देशतः पाप - प्रवृत्तियों से विरत रहने, धन-जन - कुटुम्ब - वैभव को बड़ा न मानकर धर्म एवं चारित्र को बड़ा मानने की व्यवस्था की गई है। (2) चारित्र धर्म का दूसरा रूप अणगार धर्म के नाम से विश्रुत हुआ । इसके अन्तर्गत पंच महाव्रतधारी, ज्ञान-धन-साधक, महान् चारित्रात्माओं को स्थान दिया गया। इस चारित्र धर्म आराधक, श्रमण-श्रमणी वर्ग के लिए 5 महाव्रत मूलगुण रूप एवं 5 समिति + 3 गुप्ति = 8 गुण उत्तरगुण रूप का विधान किया गया। ये सर्वथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील सेवन एवं परिग्रह से परे हटकर इन्द्रिय दमन, कषायों का वमन, मन का समन और आत्मा का दमन रूप साधना में अहर्निश निरत रहते हैं। चतुर्विध संघ में साधु-साध्वी वर्ग का स्थान सर्वोपरि है । वे तीन करण और तीन योग से सम्पूर्ण पापों के त्याग की प्रतिज्ञा धारण करते हैं । वे दैनिक क्रिया कलापों के साथ साधना विषयक गतिविधियों में सूक्ष्मातिसूक्ष्म पापप्रवृत्ति युक्त क्रियाओं से अपनी आत्मा को विरत बनाते हुए पूर्ण निर्दोष धार्मिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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