Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 381
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी परिक्ख भासी सुसमाहि इंदिय, चउक्कसायावग्गए अणिस्सिए । स निद्धुणे धुण्णमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ अर्थात्–जो साधु इन्द्रियों के उपयोग में सुसमाधि से युक्त है; कषायों से रहित है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के बन्धन से मुक्त है; वही साधक वचन के गुणदोषों को परख कर बोल पाता है। वह साधना के प्रभाव से पूर्वकृत पापकर्म को नष्ट कर डालता है। अपने सुन्दर भाषा प्रयोग एवं व्यवहार से लोक में मान्य बनता है तथा परलोक में उत्तम देवलोक या सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है। जो कि साधक की सर्वोत्तम उपलब्धि है। श्रमण साधना की श्रेष्ठ भूमि पर अवस्थित होता है, अत: वह स्व कथ्य पर पूर्ण नियन्त्रण और सजगता रखता है। श्रमण भाषा में सावद्यता एवं निरवद्यता का विचार हर क्षण करके ही बोलता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने भाषा समिति से सम्पन्न विवेकशील साधु को मौनी अर्थात् मुनि कहा है। आचार्य मनु ने साधक को सत्य ही बोलने को कहा है। महाभारत के शान्तिपर्व में भी वचन विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । 381 उपसंहार—अस्तु आचार के सजग प्रहरी साधक आत्माओं को प्रबल वेग का अनुसरण करती भौतिकता की चकाचौंधती आँधी से अप्रभावित हो सहजता से संयमी -मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। ईर्या समिति और भाषा समिति के लिए साधक को 'जयं चरे, जयं भासे' का सिद्धान्त अपनाकर अपना जीवन आत्म-कल्याणार्थ समर्पित कर सिद्धत्व को प्राप्त करना चाहिए। हम वर्तमान और अतीत का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि अतीत में साधक का आचार नियत और विहार अनियत था। लेकिन आज शिथिलता के पोषकों ने विपरीतता को प्रस्रवित कर दिया और आज आचार अनियत और विहार नियत होता जा रहा है। लेकिन उक्त आगम-वाक्यों के अवलोकन से निश्चित ही हमें ज्ञात होता है कि हम आचार के उत्कृष्ट पालक बनकर ही श्रेष्ठत्व एवं निजत्व को प्राप्त कर सकते हैं। ईर्या समिति, भाषा समिति के पालक का लक्ष्य यही हो कि “वह दिन धन्य होगा जब मैं ईर्ष्या का अन्त कर अचल पद को प्राप्त करूँगा तथा वह दिन धन्य होगा जब मैं वचन वर्गणा के पुद्गलों से अनाश्रित रह वचन योग का अन्त करके अभाषक बनूँगा और अशरीरी होकर आत्म प्रदेशों के अखण्डित स्वरूप में रमण कर अनन्त सुख को प्राप्त करूँगा ।" अतः असम्यक् आचरण से निवृत्त हो समितियों का सम्यक् आचरण होगा तो आत्मा उज्ज्वलता की ओर अग्रसर होगी और सिद्धत्व को प्राप्त कर एक प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगी। 37/67, रजत पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020 ( राजस्थान) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416