Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 || 12. पवन- पवन जैसे अप्रतिबद्ध होकर विचरण करती है वैसे ही श्रमण राग-द्वेष से बद्ध न होकर
विचरता है। 13. विष- विष में सभी रसों का अन्तर्भाव होता है। उसके रस का कोई अनुभव नहीं करना चाहता है।
इसी प्रकार कर्म श्रमण को बांधते नहीं है। अतः श्रमण विष तुल्य है। 14. तृण- तृण की तरह श्रमण मान का त्याग कर नम्रवान होता है। 15. कर्णिका पुष्प- कर्णिका (कनेर) शुचि-अशुचि गंध निरपेक्ष होता है। ठीक उसी प्रकार श्रमण
सुगन्धी (चन्दनादि लेप) से रहित होता है। 16. उत्पल- उत्पल (कमल) के समान श्रमण सम्यक् चारित्र से धवल और सुगन्धित होता है। 17. चूहा- जिस तरह चूहा बिल्ली के डर से मर्यादित होकर चलता है उसी तरह श्रमण देश-काल की
मर्यादा से चलता है। 18. नट- नट जैसे स्त्री के फंदे में नहीं फंसता है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करता है वैसे
ही श्रमण स्त्रियों के बंधन में नहीं पड़ते हैं और योग्य समय तथा देश में गमन करते हैं। 19. कुक्कुट- मुर्गे को खाने की वस्तु बिखेर कर दी जाने पर वह खाता है। श्रमण को भी उनके बड़े
साधु भोजन को विभाजित कर देते हैं।
'इस प्रकार दशवकालिक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने चेतन-अचेतन द्रव्यों का ग्रहण कर श्रमण शब्द को सरल और सहज शब्दों से स्पष्ट किया है। सन्दर्भ:1. सूत्रकृतांग टीका पृ. 2, आवश्यक टीका पृ. 28, द्रष्टव्यः- तुलसी प्रज्ञा, अप्रेल-सितम्बर 1994 में प्रकाशित ___ समणी कुसुमप्रज्ञा का लेख-नियुक्ति और उसके रचनाकारः एक विमर्श । 2. आवश्यक हरिभद्रीय टीका, पृ. 363, द्रष्टव्यः- तुलसी प्रज्ञा, अप्रेल-सितम्बर 1994 में प्रकाशित समणी
कुसुमप्रज्ञा का लेख-नियुक्ति और उसके रचनाकारः एक विमर्श । 3. दशवकालिक नियुक्ति गाथा सं. 152 4. दशवैकालिक नियुक्ति गाथा सं. 154 5. दशवकालिक नियुक्ति गाथा सं. 155 6. दशवैकालिक नियुक्ति गाथा सं. 156 7. दशवैकालिक नियुक्ति गाथा सं. 158 एवं 159 8. दशवैकालिक भाग 2, मूलनियुक्ति भाष्य सहित लेखक- मुनि माणक, गीरधरलाल डुंगर सेठ, श्री मोहनलाल जैन श्वेताबर ज्ञान भंडार, गोपीपुरा-सूरत, गाथा 157 के पश्चात् पृष्ठ सं. 6
-ललवाणी भवन, नवचौकिया, जोधपुर (राज.)
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