Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || समाज और पर्यावरण पर जो विपरीत प्रभाव होते हैं, उनका आकलन किया जाए तो अनेक तथ्य मिल सकते हैं। रात्रिभोजन-त्याग और स्वास्थ्य का भी गहरा सम्बन्ध है, जिसके बारे में समय-समय पर चर्चा होती रहती है। आयुर्वेद में भी सूर्यास्त-पूर्व भोजन को स्वास्थ्य के लिए हितकर बताया गया है। रात को नहीं खाने वाला अनेक प्रकार की बीमारियों से बचा रहता है। इसका व्यक्ति की क्षमता और साधना पर अनुकूल प्रभाव होता है। वस्तुतः रात्रिभोजन निषेध का व्यष्टि और समष्टि, दोनों पर अनुकूल प्रभाव होता है।
__श्रमणाचार और श्रावकाचार का अन्तःसम्बन्ध है। श्रावक के लिए श्रमण-जीवन और श्रमणाचार आदर्श रूप में होते हैं। एक जैन श्रमण का जीवन श्रम, स्वावलम्बन, कष्ट-सहिष्णुता, संयम, त्याग, क्षमा, करुणा, सजगता, मौन मर्यादा आदि अनेक विशेषताओं से अनुप्राणित होता है। श्रमण-जीवन की ये विशेषताएँ किसी न किसी रूप में श्रावक-जीवन और जनजीवन को प्रभावित और प्रेरित करती हैं। इस प्रकार जैन श्रमण की पूरी दिनचर्या तथा सम्पूर्ण जीवन-चर्या जिस प्रकार एक श्रावक के लिए उपयोगी व अनुकरणीय होती है, उसी प्रकार वह मानव, मानवता और दुनिया के लिए भी अनेक प्रकार की प्रेरणाओं का संचार करने वाली होती है। सन्दर्भ :1. आवश्यक नियुक्ति, 189
कोहंमाणंचमायंचलोभंचपाववडढणं। वमे चत्तारि दोसे उइच्छंतो हियमप्पणो ।-दशवैकालिक सूत्र-8.37 कोहो पीइंपणासेइमाणो विणयनासणो।माया मित्ताणि नासेइ लोहोसव्वविणासणो।- दशवैकालिक सूत्र, 8.38
होदि कसाउम्मत्तो, उम्मत्तो तधण पित्तउम्मत्तो। - भगवती आराधना, 1331 ____ अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हुतं बहु होइ।- आवश्यक नियुक्ति,
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नाशाम्बरत्वेन सिताम्बरत्वे,न तर्कवादे न च तत्त्ववादे।न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव। 7. इसिभासियाई, 36.13 8. आचारांग सूत्र, 4.3.136
रोसाइट्ठो णीलो हदप्पभो अरदिअग्गिसंसत्तो। सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिट्ठो वा।-भगवती आराधना,
1360, कोधो सत्तुगुणकरो, भ.आ.-1365 10. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.5.103 11. बालजणो पगब्भई-सूत्रकृतांग 1.11.2 एवं अन्नं जणं खिंसइ बालपन्ने।- वही, 1.11.14 12. न तस्स जाई व कुलं व ताणं, नण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं- सूत्रकृतांग, 1.13.11 13. सयणस्स जणस्स पिओ, णरो अमाणी सदा हवदि लोए। णाणं जसं च अत्थं, लभदि सकज्जं च साहेदि।-भगवती
आराधना, 1379 व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.43
सच्चाण सहस्साणि वि, माया एक्काविणासेदि-भगवती आराधना, 1384 16. मायामोसं वड्ढई लोभदोसा- उत्तराध्ययन सूत्र, 32.30 17. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.54 18. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। - उत्तराध्ययन सूत्र, 8.17
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