Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || यही तृण-स्पर्श-परीषह है। (I) ग्रीष्मकाल में तेज धूप के गिरने से अतुल (असह्य) वेदना होती है, ऐसा जानकर घास या दर्भ से
पीड़ित मुनि तन्तुओं (सूत के रेशों) से निष्पन्न वस्त्र का सेवन नहीं करते। कथा:- तृण स्पर्श परीषह-विजय पर भद्रर्षि मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (18) जल्ल परीषह (मल परीषह):(i) पसीने के कारण जमे हुए मैल से या रज से अथवा ग्रीष्म ऋतु के परिताप से शरीर के पसीने से
तरबतर हो जाने पर मेधावी मुनि सुखसाता के लिए विलाप न करे। (I) निर्जरार्थी मुनि पूर्वोक्त मलजनित कष्ट को सहन करे। इस आर्य एवं अनुत्तर धर्म को पाकर भाव
मुनि जब तक शरीर न छूटे तब तक शरीर पर सहज रूप से जमे हुए इस प्रकार के मैल को सहर्ष
धारण करे। कथाः- मल परीषह न सहने के परिणाम के विषय में सुनन्द श्रावक की कथा द्रष्टव्य है। (19) सत्कार-पुरस्कार परीषहः(1) राजा आदि (शासकवर्गीय या धनाढ्य, राजनेता आदि) अन्य तीर्थिक साधुओं का अभिनन्दन . करते हैं, उनके सत्कार में खड़े होते हैं तथा उन्हें भिक्षा आदि के लिए निमंत्रण देते हैं और अन्य
तीर्थिक इसे स्वीकार करते हैं, उन्हें देखकर आत्मार्थी मुनि वैसे अभिनन्दन-सत्कार की चाहना न
करे। (i) जो मन्दकषायी, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला तथा अलोलुप है, वह
प्रज्ञावान साधु दूसरों को सरस आहार मिलते देख स्वादु-रसों में गृद्ध-आसक्त न हो एवं दूसरों
को सम्मान पाते देख कर मन में पश्चात्ताप न करे। कथाः- इस विषय में मुनि और उनके अन्धभक्त श्रावक की कथा द्रष्टव्य है। एक ने इस परीषह को जीता है, जबकि दूसरा इससे पराजित हुआ है। (20) प्रज्ञा परीषहः(1) अहो! निश्चय ही मैंने पूर्व जन्म में अज्ञानरूप फल देने वाले ज्ञानावरणीय कर्म का बंध किया है, __ जिस कारण किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर मैं कुछ भी उत्तर नहीं देना जानता। (I) अज्ञान रूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म अबाधाकाल व्यतीत होने पर (परिपाक होने पर) उदय में
आते हैं। इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपनी आत्मा को आश्वासन दे। कथाः- प्रज्ञा परीषह पर भद्रमति मुनि एवं सागरचन्द्राचार्य की कथा द्रष्टव्य है। (दोनों कथाएँ मूलसूत्र के परिशिष्ट में देखें।) (21) अज्ञान परीषहः
(1) मैं निष्प्रयोजन ही मैथुन से निवृत्त हुआ तथा व्यर्थ ही मैंने इन्द्रिय और मन का संवरण किया,
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