Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
|| 10 जनवरी 2011 ||
| जिनवाणी अधिकार त्याग कर दीक्षा अंगीकार करता है। साध्वी-दो- अपार ऐश्वर्य और अतुलित सम्पत्ति को भी श्रमण तृणवत् त्याग देता है। उसके मानस में मोह
व्याप्त नहीं होता। श्रमण भाव से निर्मल होता अंतःकरण है। साध्वी-एक- श्रमण का शरीर भी अध्यात्म-साधना का एक अनिवार्य साधन है। श्रमण न्यूनतम
आवश्यकताओं पर जीवन निर्वाह करता है। साध्वी-दो- श्रमण उपार्जन नहीं करता, संयम अपनाता है। साध्वी-एक- अणगार श्रमण नौ प्रकार के बाह्य संयोग से- क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी,
दास, कुप्य से मुक्त रहता है और शाश्वत मुक्ति तलाशता है। साध्वी-दो- चौदह प्रकार के आभ्यन्तर संयोग से भी मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंक वेद, हास्य, रति,
अरति, भय, शोक, जगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ से मुक्त रहता है। श्रमण धर्म की राह के
पथिक हैं। साध्वी-एक- श्रमण के लिए पिण्ड,शय्या, वस्त्र तथा पात्र न्यूनतम आवश्यकताओं के उपकरण माने जाते हैं। साध्वी-दो- श्रमण के वस्त्र धारण के तीन प्रयोजन-लज्जा निवारण, जन घृणा निवारण और शीतादि
प्राकृतिक प्रहार से सुरक्षा है। साध्वी-एक- श्रमण के लिए बहत्तर हाथ और श्रमणी के लिए तिरावने हाथ वस्त्र उपयोग का विधान है। साध्वी-दो- श्रमणों के लिए मुख वस्त्रिका, रजोहरण, पात्र, चोल पट्टक, वस्त्र, कम्बल, आसन, पाद
प्रोंछन, शय्या, बिछाने के लिए घास-पुआल, फलक, पात्र बन्ध, पात्र स्थापन, पटल, पात्र
केसरिका, रजस्त्राण आदि उपकरण होते हैं। साध्वी-एक- श्रमण की भिक्षा प्रणाली विशिष्ट कोटि की होती है। यह तपश्चर्या का एक रूप है-गोचरी। साध्वी-दो- - श्रमण रसना-तुष्टि अथवा स्वाद के लिए आहार ग्रहण नहीं करते। साध्वी-एक- श्रमण के आहार ग्रहण करने के कारणों में क्षुधा वेदना सहन न होना, वैय्यावृत्त्य, ईर्या शोधन,
संयम-पालन, जीव-रक्षा एवं धर्म-चिन्तन प्रमुख हैं। साध्वी-दो- श्रमण के आहार-त्याग के कारणों में रोगव्याधि, संयम-त्याग का उपसर्ग, ब्रह्मचर्य रक्षा,
जीव-रक्षा, तपस्या, शरीर त्याग का अवसर आदि प्रमुख होते हैं। साध्वी-एक- श्रमण की दिनचर्या सामाचारी में विश्लेषित होती है। वह स्वाध्याय से ज्ञान चक्षुओं को
अनावृत्त करता है। साध्वी-दो- स्थानांग सूत्र में सामाचारी का स्वरूप आवश्यिकी, नैषधिकी, आपृच्छना, छन्दना,
इच्छाकार, मिथ्याकार, तथेतिकार, अभ्युत्थान एवं उपसंपदा है। (एक पल का अन्तराल, मंच पर सभी युवक-युवतियों (पात्रों) का प्रवेश होता है।)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org