Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011
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जिनवाणी
(4) संयम अर्थात् मुनि धर्म की रक्षा के लिए ।
(5) जीवन-रक्षा के लिए।
(6) धर्म-चिन्ता अर्थात् स्वाध्यायादि के लिए ।
इनमें से किसी भी कारण की उपस्थिति में मुनि को आहार की गवेषणा करनी चाहिये । श्रमण की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में शास्त्रों में क्या वर्णन आया है? इसका उत्तर जैन आचार - शास्त्र में व्यवस्थित रूप से दिया गया है। यह उत्तर दो रूपों में है । सामान्य दिनचर्या व पर्युषणाकल्प । उत्तराध्ययन सूत्र आदि में मुनि की सामान्य दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है तथा कल्प सूत्र आदि में पर्युषणा कल्प अर्थात् वर्षावास (चातुर्मास ) सम्बन्धी विशिष्ट चर्या का वर्णन किया गया है।
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श्रमणजीवन का आदर्श एवं हृदयस्पर्शी चित्र किस सूत्र में आया है?
यदि श्रमण जीवन का आदर्श एवं हृदयस्पर्शी चित्र देखना हो तो आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवम अध्ययन पढ़ना चाहिए। इस अध्ययन का नाम उपधान श्रुत है । उपधान शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने बताया है कि तकिया द्रव्य उपधान है जिससे शयन में सुविधा मिलती है तथा तपस्या भाव उपधान है जिससे चारित्र पालन में सहायता मिलती है। जिस प्रकार जल से मलिन वस्त्र शुद्ध होता है, उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के कर्म-मल का नाश होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के सम्यक्त्व पराक्रम नामक अध्ययन में षडावश्यक का संक्षिप्त फल क्या बताया गया है?
सामायिक से सावद्य योग (पाप कर्म ) की निवृत्ति होती है । चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन - विशुद्धि (श्रद्धा-शुद्धि) होती है । वन्दना से नीच गोत्र कर्म का क्षय होता है, उच्च गोत्र का बन्ध होता है। प्रतिक्रमण से व्रतों के दोषरूप छिद्रों का निरोध होता है। आस्रव द्वार बन्द होता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन होता है। कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त-विशुद्धि होती है, अतिचारों की शुद्धि होती है, आस्रव द्वार बन्द होते हैं तथा इच्छा का निरोध होता है। सर्वविरत श्रमण के लिए इनका पालन आवश्यक बताया गया है।
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दशाश्रुत स्कन्ध के सप्तम उद्देशक में द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं के क्या नाम हैं?
प्रतिमा का अर्थ है - तप-विशेष। द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार हैं: - ( 1 ) मासिकी, (2) द्विमासिकी, (3) त्रिमासिकी, (4) चातुर्मासिकी, (5) पंचमासिकी, (6) षट्मासिकी, (7) सप्तमासिकी, (8) प्रथमसप्त अहोरात्रिकी, ( 9 ) द्वितीयसप्त अहोरात्रिकी, ( 10 ) तृतीयसप्तअहोरात्रिकी, (11) अहोरात्रिकी, ( 12 ) रात्रिकी ।
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