Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 परिभ्रमण करे। कथाः- इस विषय में संगम नामक स्थविर आचार्य की कथा द्रष्टव्य है। (10) निषद्या परीषहः(i) श्मशान में, सूने घर में अथवा वृक्ष के नीचे द्रव्य से अकेला और भाव से राग-द्वेष रहित केवल
आत्म-भाव में लीन, अचपल होकर बैठे या कायोत्सर्ग करे, किन्तु आस-पास के किसी दूसरे
प्राणी को भयभीत न करे, या कष्ट न दे। कथाः- इस विषय में एकल विहारी प्रतिमाधारी कुरुदत्त मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (11) शय्या परीषहः(i) उन श्मशानादि पूर्वोक्त स्थानों में कायोत्सर्गादि में बैठे हुए साधु को कदाचित् देवता, मनुष्य या
तिर्यञ्च संबंधी कोई उपसर्ग आ जाये तो उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे, किन्तु अनिष्ट की शंका
से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य आसन पर न जाए। (ii) स्त्री, पशु, नपुसंक आदि के संसर्ग से रहित विविक्त उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या
बुरा, उसमें मुनि समभाव पूर्वक यह सोच कर रहे कि एक रात में यह क्या सुख-दुःख उत्पन्न
करेगा? तथा वहाँ जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आए, उसे समभाव से सहन करे। (iii) ऊँची-नीची या अच्छी-बुरी शय्या पाकर तपस्वी एवं सर्दी-गर्मी आदि सहन करने में समर्थ भिक्षु
मर्यादा का अतिक्रमण करके संयम का घात न करे। पापदृष्टि वाला साधु ही हर्ष-शोक से
अभिभूत होकर मर्यादा को तोड़ता है। कथाः- शय्या परीषह पर सोमदत्त और सोमदेव मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (12) आक्रोश परीषहः(i) यदि कोई मनुष्य साधु का दुर्वचनों से तिरस्कार करता है, उसे गाली देता है तो वह उस पर रोष न
करे, क्योंकि रोष करने वाला साधु बालकों-अज्ञानियों के समान हो जाता है। अतः साधु कोप न
करे।
(ii) कर्ण आदि इन्द्रियों को काँटे की तरह चुभने वाली और स्नेहरहित कठोर भाषा को सुनकर भिक्षु
मौन रहे, उसके प्रति उपेक्षा भाव रखे, न ही मन में उस बात को लावे। कथाः- आक्रोश परीषह पर राजगृहवासी अर्जुन मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (13) वध परीषहः(i) यदि कोई दुष्ट अनार्य पुरुष साधु को मारे तो साधु उस पर क्रोध न करे, मन में भी उस पर द्वेष न
लाये। 'क्षमा उत्कृष्ट धर्म है' ऐसा जानकर साधु क्षमा, मार्दव आदि दशविध यति-धर्म का
विचार करके पालन करे। (ii) पाँच इन्द्रियों का दमन करने वाले संयमी साधु को कोई भी व्यक्ति कहीं पर मारे-पीटे तो “जीव
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