Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| जिनवाणी |
|| 10 जनवरी 2011 ॥ (ii) जहाँ लोगों का आना-जाना नहीं है ऐसे निर्जन मार्ग में जाता हुआ साधु प्यास से अतिव्याकुल हो
जाय तथा मुँह सूख जाए फिर भी वह दीनता रहित होकर उस प्यास के परीषह को सहन करे,
किन्तु साधु मर्यादा का उल्लंघन करके सचित्त पानी का सेवन नहीं करे। कथा:- इस विषय में अम्बड़ के शिष्यों द्वारा पिपासा परीषह सहन करने की कथा द्रष्टव्य है। (3) शीत परीषहः(1) पापों से विरत एवं स्निग्ध भोजनादि के अभाव में रुक्ष शरीर वाले मुनि को विचरण करते हुए
कदाचित् शीत पीड़ित करे, तो जिनागम को सुन-समझ कर स्वाध्याय आदि के काल का
उल्लंघन करके दूसरे स्थान में न जाए, मर्यादा का उल्लंघन नहीं करे। (ii) सर्दी से पीड़ित होने पर मुनि इस प्रकार नहीं सोचे कि मेरे पास शीत-निवारण के योग्य मकान
आदि नहीं है तथा शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण-कम्बल आदि ऊनी वस्त्र नहीं हैं
तो मैं अग्नि का सेवन क्यों न कर लूँ। कथाः- राजगृह नगर के भद्रबाहु स्वामी के पास दीक्षित और एकल विहारी प्रतिमाधारी चार समवयस्क मुनियों की कथा द्रष्टव्य है। (4) उष्ण परीषहः(i) तपी हुई धरती, शिला, बालू आदि की गर्मी से, परिताप से तथा बाहर से पसीना, मैल या
लुहारशाला के पास खड़े हों तो उसकी अग्नि से और अन्दर से प्यास से उत्पन्न हुई दाह से अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य-किरणों के प्रखर ताप से पीड़ित साधु ठण्डक आदि की सुख-साता के लिये
व्याकुलता न करे। (ii) गर्मी के ताप से तप्त होने पर मर्यादाशील साधु त्रिविध प्रतिकार न करे- (1) स्नान की इच्छा न
करे, (2) शरीर पर पानी न डाले और (3) पंखे आदि से हवा न करे। कथाः- इस विषय में अर्हन्नक मुनि की कथा द्रष्टव्य है। (5) दंशमशक परीषहः(i) जैसे युद्ध के मोर्चे में रहकर शूरवीर बाणों की कुछ भी परवाह नहीं करता हुआ शत्रु-सैन्य का
हनन करता है, वैसे ही महामुनि भी डाँस, मच्छर तथा उपलक्षण से , खटमल आदि क्षुद्र जन्तुओं के उपद्रवों की कुछ भी परवाह न करते हुए रागद्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं को जीतकर
समभाव में स्थित रहे। (ii) मुनि डाँस और मच्छरों से संत्रस्त (उद्विग्न) न हो, न उन्हें हटाए, मन से भी उनके प्रति द्वेषभाव न
लाए, अपना माँस और रक्त खाने-पीने पर भी उन प्राणियों के प्रति उपेक्षा भाव रखे, उन्हें मारे
नहीं।
कथाः- इस विषय में एकल विहारी सुमनोभद्र (सुदर्शन) मुनि की कथा द्रष्टव्य है।
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