Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || आधुनिक सूचना तंत्र
पिछले दशकों में सूचना तंत्र और संचार व्यवस्था में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। आपसी सूचनाओं का आदान-प्रदान करने में भौगोलिक दूरियाँ बेमानी हो गई हैं। इससे शंका समाधान' में होने वाले विलम्ब एवं आ रही कठिनाइयाँ समाप्त हो गई हैं। क्योंकि इसके लिए किसी को चलकर जाने की आवश्यकता नहीं है तथा लिखित पत्रों की अस्पष्ट भावनाएँ अब रोड़े नहीं बन सकती। रूबरू आपस में बात करिये, उनके आशय और भाव को समझिये। यह सम्भव हो चुका है। ज्ञान के विलुप्त होने के, दुष्काल आदि कारणों का प्रभाव भी क्षीण हो गया है। मोबाइल क्रांति का प्रभाव और गहरा होता जा रहा है।
प्राचीन काल में दूरियों के कारण तथा अविकसित संचार व्यवस्था के कारण श्रमणों की आपसी समझ में, समयान्तर में बदलाव आ जाता था। अतः समझ की एकरूपता रखने के लिए समय-समय पर सम्मेलन बुलाने पड़ते थे। इस कठिनाई या समस्या से निजात पाने के लिए उस ज्ञान को कालान्तर में लिपिबद्ध कर देने से, ज्ञान की एकरूपता रखने में मदद मिली। उसके बाद हस्तलिखित ग्रंथों का प्रचलन बढ़ा, लेकिन वह बहुत श्रमसाध्य था। अब मशीनों के आ जाने के बाद ग्रंथों का प्रकाशन बढ़ गया। इसके अलावा अब श्रमणों द्वारा रचित व्याख्याएँ तथा व्याख्यान, पत्र-पत्रिकाओं द्वारा तीव्र गति से प्रसारित हो जाते हैं। अब तो इन्टरनेट, कम्प्यूटर और टी.वी. द्वारा उनके विचारों का, व्याख्यानों का सीधा प्रसारण हो जाता है। एक श्रमण के व्याख्यान को एक साथ लाखों घरों में बैठे-बैठे सुन सकते हैं, देख सकते हैं। ज्ञान-भंडार
ज्ञान भंडारों का स्वरूप बदल गया है। हस्तलिखित ग्रंथों का दायरा और उपयोगिता काफी सीमित थी।अब उनको डिजिटलाइज करके पूरे विश्व में उपलब्ध कराया जा सकता है। घरों में ही इन्टरनेट पर पूरा ज्ञान भण्डार उपलब्ध हो सकता है। शोधकर्ताओं को विश्व के किसी भी ज्ञान भण्डार की पुस्तकों का साहित्य उपलब्ध कराया जा सकता है। शोध का पूरा परिप्रेक्ष्य बदल गया है। शिक्षा- पढ़ाई के साधनों तथा ज्ञान-प्राप्ति के संसाधनों में भी उसी प्रकार आशातीत वृद्धि हुई है। दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की सुविधाएँ बढ़ गई हैं। एक क्लिक करते ही ग्रंथों की सभी सूचनाएँ या व्याख्याएँ मिल जाती हैं। इस सूचना क्रांति से लगता है कि साधुओं एवं ज्ञान-भंडारों की भूमिका ही बदल गयी है। भाषाएँ
आजकल विभिन्न भाषाओं का आपसी अनुवाद आसानी से मशीनों द्वारा उपलब्ध कराया जा सकता है। इसके चलते भाषाविदों को अब अनुवाद करने में ज्यादा समय नहीं लगाना पड़ता है।
निचोड़ रूप में कहा जा सकता है कि धर्म के व्यापक प्रचार, प्रसार और सत्संग में, संचार, सूचना और यातायात के क्रांतिकारी बदलाव के कारण, सामाजिक, आर्थिक परिवेश में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। मोटे तौर पर इस बदले परिप्रेक्ष्य में श्रमणाचार' का भी प्रासंगिक होना अति आवश्यक दिखाई देता है।
इनके कुछ नियमों की प्रासंगिकता पर विचार करते हैं।
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