Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 333
________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी 333 समझ से ही समझा जा सकता है। उसे छींके पर लटका कर गौण नहीं किया जा सकता है। आधुनिक सामाजिक-व्यवस्था में भी शुद्ध आचार की महत्ता पूर्ववत् ही समझ में आती है, खासकर महाव्रतधारियों के लिए। लेकिन प्रचार-प्रसार व प्रभाव की प्रबल और अकल्पनीय सम्भावनाओं के चलते, श्रमणों पर उन उपकरणों के उपयोग के लिए मानसिक व सामाजिक दबाव भी बढ़ रहा है। साधारण श्रमणों के लिए, उस दबाव को झेलना दुष्कर हो रहा होगा। जिन्होंने अपने कदम उधर बढ़ा दिये, उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान, राजकीय संरक्षण और धर्म सभाओं में विशाल जन मेदिनी उनकी सफलता का मापदण्ड बन जाती है। हो सकता है, इन बाह्य उपलब्धियों में, वे अनासक्त भाव से जीते हों, लेकिन मिथ्यात्व के पोषण की सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है। _ अतः आज के परिप्रेक्ष्य में भी श्रमणों से महाव्रत की अखण्डता की ही अपेक्षा रहती है। नये संसाधनों को धर्म प्रचार में लगाने के लिए तो ऊपर सुझाये हुए एक नये विशिष्ट श्रावक वर्ग की ही आवश्यकता है। कुछ आचार्यों ने तो ऐसा वर्ग (समण) तैयार भी कर लिया है। क्योंकि श्रुत धर्म और चारित्र धर्म को अंगीकार करने वाले श्रमणों से अपेक्षाएँ भिन्न प्रकार की होती हैं। अतःनये समण वर्ग को अधिक विकसित करने की आवश्यकता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि आजकल धर्मगुरु कहलाने वाले श्रमण सामाजिक सेवा, शिक्षा और रुग्ण सेवा के नाम पर ग्राहकों/शिष्यों की भक्ति बटोर कर, स्वयं भक्तों के संग धर्म की मीठी शराब के नशे में रहते हैं तथा स्वर्ग/मोक्ष का लाभ बताकर, सुखसीलिया बनकर भी अपने आपको अनासक्त बताते रहते हैं। उनका कषाय मुक्त हो पाना असम्भव लगता है। आत्मधर्म को स्वीकार करके उसका प्रासंगिकता के नाम पर उल्लंघन करके विघातक बनना तो अपने को धोखा देना है। हालांकि आज भी कई ईमानदार और प्रामाणिक श्रमण विद्यमान हैं, जो अहिंसा महाव्रत' का पूर्णतः पालन करने का प्रयास करते हैं। उनका आचरण, तप, त्याग, आदि चौथे आरे की बानगी के समकक्ष लगता है। आडम्बर और परिग्रहों से दूर रहकर अभी भी स्वयं श्रम करते हुए वे फक्कड़ की तरह निर्दोष धर्मपालना करते हैं। उनके यहाँ भी ज्ञानी भक्तों की भीड़ लगती है, लेकिन एक सादगी के माहौल में। श्रमण की गोचरी एकल परिवारों के चलते श्रमणों को समाज में गोचरी के लिए बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं। इस व्यवस्था में प्रासुक (अचित्त) और एषणीय (निर्दोष) आहार-पानी मिलना अति दुष्कर हो गया है। परिवारों के खानपान के पदार्थ ही नहीं बदल गये हैं, बल्कि भोजन का समय भी बदल गया है। दोपहर का भोजन दो बजे यदि तैयार होता है, तो साधु लोग अपनी दिनचर्या कैसे निभायेंगे? ऐसी परिवर्तित आधुनिक भोजन-व्यवस्था की कठिनाइयों से छुटकारा पाने के लिए, कुछ संघों ने कम से कम अचित्त-पानी के उपयोग के बारे में एक अभियान चलाया है, जो बहुत ही समसामयिक है। विस्मृत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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