Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 | अधिकांश समय आगमों के स्वाध्याय में व्यतीत होता था। सभी तपों में स्वाध्याय' का स्थान सर्वोपरि है। कहा है- 'न वि अत्थि, न वि होहि, सज्झायसमं तवो कम्मी' अर्थात् स्वाध्याय के समान न तो कोई तप है और न होगा। अखिल भारतीय स्तर पर स्वाध्याय संघ की स्थापना आपकी प्रेरणा से हुई। इसके परिणाम स्वरूप आज आगमों के जानकर हजारों स्वाध्यायी तैयार हुए हैं जो भारत में ही नहीं विश्व के दूरस्थ स्थानों पर जाकर भी धर्म प्रचार कर रहे हैं। तपाचार में, तप के बारह प्रकारों में अंतिम तीन जो सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट हैं, वे हैं- स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग)। आपके जीवन में इन तीनों की विशेष पालना देखने को मिलती थी। इस प्रकार आपका तपोमय जीवन तपाचार का एक श्रेष्ठ ज्वलन्त उदाहरण रहा है। वीर्याचार विषयक- जैसे सर्वार्थसिद्ध के देव अवगाहना में एवं आकृति में छोटे होकर भी महाऋद्धि, महापराक्रमी, महातेजस्वी और शान्ति वाले होते हैं, वैसे ही आचार्य श्री शरीर, कद एवं आकृति में लघु होते हुए भी, महातेजस्वी, महापराक्रमी, अप्रमत्त और आत्मशक्ति के महापुञ्ज थे। आप अपनी विशिष्ट शक्तियों का गोपन किये हुए साधनारत रहते थे। आपने अध्यात्म-क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए, जो आपके महान् बल, वीर्य, पुरुषकार एवं पराक्रम के प्रतीक हैं। उदाहरणार्थ जैन धर्म का मौलिक इतिहास विस्तृत चार भागों में व्यवस्थित एवं प्रामाणिक रीति से तैयार हुआ। अखिल भारतीय स्तर पर सामायिक एवं स्वाध्याय संघ गठित
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'मुणिणो सया जागरंति' वाक्य के अनुसार आप सदा जागृत एवं अप्रमत्त दशा में साधनारत रहते थे। परिणामतः अंतिम समय में देह-त्याग का समय निकट जानकर अपने वीर्याचार के अपूर्व विनियोग से जागृत दशा में प्रथम अष्टम भक्त (तेले) की तपस्या ग्रहण कर तपस्या में बढ़ते हुए संलेखना, संथारा और पंडित मरण का वरण कर सदा के लिए अमर हो गए। वीर्याचार की पालना का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
इस प्रकार आचार्य श्री हस्तिमल जी म.सा. पंचाचार के न केवल दृढ़ पालक थे, वरन् वे इस युग के एक महान शासन प्रभावक आचार्य थे, जिनकी यश-कीर्ति युगों-युगों तक अमर रहेगी।
__ अंत में यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि वैसे तो इन पंचाचारों की पालना का संबंध आचार्य के छत्तीस गुणों में होने से मुख्यतया उनसे संबंधित है, किन्तु इनकी पालना सभी श्रमणों के लिए, चाहे वे उपाध्याय हों, प्रवर्तक हों या सामान्य साधु-साध्वी हों, परमावश्यक है। बिना इनकी पालना किए, श्रमण-जीवन में शुद्धाचारी रहना कथमपि संभव नहीं है। जैसे क्रिया के बिना ज्ञान, करणी के बिना कथनी तथा उपयोग (जयणा) के बिना धर्म का महत्त्व नहीं, वैसे ही इन पंचाचारों की पालना के बिना श्रमण-जीवन सार्थक नहीं है। अतः सभी संयमी साधकों को इनकी पालना कर सदा तत्पर रहना चाहिए।
-डागा सदन, संघपुरा, टोंक-304001 (राज.)
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