Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ 320 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | 2. मान -मान के वश हो व्यक्ति वैभव का अति प्रदर्शन करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा प्रदर्शन उचित नहीं है। मद में चूर व्यक्ति अपने वैभव-प्रदर्शन के सामाजिक दुष्प्रभावों की कोई चिन्ता नहीं करता है। भगवान महावीर अहंकार को अज्ञान का द्योतक मानते हैं। सूत्रकृतांग में वे व्यक्ति के जातीय और कौटुम्बिक अहंकार को अनुचित ठहराते हुए कहते हैं - "ऐसे अहंकार से कुछ भी नहीं होने वाला। ज्ञान और सदाचरण मनुष्य की श्रेष्ठता के प्रतीक हैं।""जो निरभिमानी है, वह ज्ञान, यश व सम्पत्ति प्राप्त करता है और अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध करता है।" भगवती सूत्र में मान के बारह नाम बताये गये हैं" - (1) मान, (2) मद, (3) दर्प, (4) स्तम्भ (5) गर्व, (6) अत्युक्रोश (आत्मा-प्रशंसा), (7) परपरिवाद, (8) उत्कर्ष : अपने वैभव का प्रदर्शन, (9) अपकर्ष : किसी को उसकी योग्यता से कम आंकना, (10) उन्नत नाम : सद्गुणों व गुणियों का अनादर करना, पैसे वालों का ही आदर करना, (11) उन्मत्त : दूसरों को निम्न समझना, (12) आधा-अधूरा झुकना। आगम-ग्रन्थों में व्यक्ति के अहंकार पर चोट करने वाले अनेक प्रेरक कथानक हैं। धन, सत्ता, पद आदि का अहंकार करने वाला सामान्य व्यक्तियों की योग्यता, सलाह व स्नेह से वंचित रहता है। विनयवान व्यक्ति सद्गुणों और श्रेष्ठताओं को अर्जित करता है। 3. माया -कपट से विश्वसनीयता और मैत्री जैसे जीवन-मूल्य नष्ट हो जाते हैं। एक कपट हजारों सत्यों को नष्ट कर डालता है। मौजूदा बाजारवादी व्यवस्था में मिथ्या और कपटपूर्ण विज्ञापनों का जाल फैला हुआ है। इन विज्ञापनों ने जीवन और समाज में वस्तुओं के उपभोग की एक अनावश्यक होड़ा-होड़ी पैदा कर दी है। मायामृषावाद से समाज में लोभजनित बुराइयाँ बढ़ जाती हैं।" __ भगवती सूत्र के अनुसार माया के पन्द्रह नाम हैं" - (1) माया, (2) उपधि : ठगने के लिए किसी के पास जाना, (3) निकृति : ठगने लिए किसी को विशेष सम्मान देना, (4) वलय : भाषिक छल, (5) गहन : छलने के लिए गूढ आचरण करना, (6) नूम : साजिश, (7) कल्कः दूसरों को हिंसा के लिए दुष्प्रेरित करना, (8) अभद्र व्यवहार करना, (9) निह्नवता : ठगने के लिए कार्य मन्थर गति से करना, (10) कुचेष्टा, (11) आदरणता : अवांछनीय कार्य, (12) गूहनता : अपनी करतूतें छिपाना, (13) वंचकता, (14) प्रति-कुंचनता : किसी के सहज-सरल वचन-व्यवहार का कपट से गलत अर्थ लगाना (15) सातियोगः मिलावट करना। निश्छल, सरल और मायारहित जीवन में सुख, सौभाग्य और शान्ति का अधिवास होता है तथा पारस्परिक मैत्रीभाव स्थायी व सुदृढ़ बनता है। 4. लोभ-लाभ अर्थशास्त्र का प्रेरक तत्त्व है, लोभदुष्प्रेरक तत्त्व है। लाभ में साधन-शुद्धि का विवेक रखा जाता है। लोभ व्यक्ति को साधन-शुद्धि की फिक्र नहीं करने देता है। नीति को अनीति में बदलने में लोभ की मुख्य भूमिका है। लोभ की वजह से आर्थिक घोटाले, भ्रष्टाचार, झगड़े-टण्टे, हिंसा, युद्ध आदि होते हैं। लोभ और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416