Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
257
| 10 जनवरी 2011
जिनवाणी जीवन में मानो एक सुन्दर सुगन्धित माला के रूप में ग्रथित हो गए।
उनके विहंसते नयन, ब्रह्म तेज में दीप्त उनका मुखकमल, साधना के ओज से दमकता उनका तन, प्राणिमात्र की कल्याण कामना से बरसती उनकी पावन पीयूषयुत वाणी, सर्वजनहिताय उनका चिन्तन श्रद्धालु भक्त दर्शनार्थी व श्रोता पर सदा-सदा के लिये एक अमिट छाप छोड़ देता। जो एक बार भी उनके चरणों का स्पर्श कर पाया, वह सदा उनका हो गया।
वे सबके मन-मन्दिर के आराध्य थे, पर वे सबसे सर्वथा पृथक् थे। लाखों व्यक्ति उनसे जुड़े, पर न तो वे किसी से जुड़े, न ही उन्होंने किसी को अपने से जोड़ने की चेष्टा की। चुम्बक कब लोहे को आकर्षित करने का प्रयास करता है, उसके चुम्बकत्व से लोह कण स्वयं उस ओर खिंचे चले आते हैं।
____ संयम-जीवन की पूर्णता भले ही समाधिमरण में कही जाती हो, सामान्य साधक जीवन के अन्तिम लक्ष्य के रूप में समाधिमरण की कामना (मनोरथ) करता है, पर भेद विज्ञान विज्ञाता उस महापुरुष ने जिसने गर्भकाल से ही सांसारिक संयोगों के वियोग को देख लिया हो, धर्मशीला दादी नौज्यांबाई के संथारे के रूप में समाधिमरण का स्वरूप समझ लिया हो व किशोरवय में ही संयमदाता गुरुवर्य पूज्यपाद आचार्य शोभा का सान्निध्य न रह पाने से स्वयं गुरुतर गुरुपद के दायित्व को स्वीकार किया हो, संयम जीवन के प्रथमक्षण से ही मानो समाधिमरण की साधना प्रारम्भ कर दी हो। मात्र 29 वर्ष की युवावय में ही उन्होंने अपने द्वारा विरचित आध्यात्मिक पदों में संघ, शासन व संसार को यह बोध प्रदान किया
"मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया धूप।" "तन-धन परिजन सब ही पर हैं, पर की आश-निराश," "सदा शान्तिमय मैं हूँ, मेरा अचल रूप है खास," “ज्ञान दरस-मय रूप तिहारो, अस्थि-मांसयमय देह न थारो।" "दृश्य जगत पुद्गल की माया, मेरा चेतन रूप।"
“पूरण गलन स्वभाव धरे तन मेरा अव्यय रूप।" मानवों में श्रेष्ठ ही श्रमण बन पाते हैं पर, वे महापुरुष श्रमणों में भी श्रेष्ठ थे। श्रमण-जीवन का अंश-अंश महान विशेषताओं से परिपूरित होता है, पर सभी विशेषताओं का आधार है अनासक्ति क्योंकि 'किंचित्' को त्याग कर ही तो ‘अंकिंचन' बना जा सकता है और अकिंचन ही तो अपने प्रेम साम्राज्य का विस्तार कर सम्पूर्ण का स्वामी बन जाता है, जो भी पाने योग्य है, जो सदा रहने वाला है उस अक्षय अव्याबाध को प्राप्त कर लेता है। उनका समग्र जीवन एक अनासक्त योगी का जीवन रहा।
साधक जीवन का लक्ष्य वीतरागता है। विरक्ता ही वीतरागता की ओर बढ़ने का पावन पथ है जिसका चयन उन्होंने अबोध बाल्य-अवस्था में ही कर लिया था। संसार भोग व ऐश्वर्य से विरक्त योगी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org