Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
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आदि के पात्र का नहीं ।
अवग्रहैषणा- अवग्रह अर्थात् किसी के स्वामित्व का स्थान । निर्ग्रन्थ भिक्षु किसी स्थान में ठहरने के पूर्व उसके स्वामी की अनिवार्य रूप से अनुमति ले । ऐसा न करने पर उसे अदत्तादान - चोरी करने का दोष लगता है।
10 जनवरी 2011
मलमूत्र विसर्जन- भिक्षु को अपना टट्टी पेशाब कहाँ व कैसे डालना चाहिए, इसका निरूपण करते हुए वर्णन आचारांग में कहा गया है कि जहाँ और जिस प्रकार इन्हें डालने से किसी भी प्राणी के जीवन की विराधना की आशंका न हो वहाँ व उस प्रकार से भिक्षु को मलमूत्रादिक डालना चाहिये । शब्द-श्रवण व रूपदर्शन- किसी भी प्रकार के मधुर शब्द सुनने की भावना से अथवा कर्कश शब्द न सुनने की इच्छा से भिक्षु को गमनागमन नहीं करना चाहिए । फिर भी यदि सुनने ही पड़ें तो समभावपूर्वक सुनना व सहन करना चाहिए। यही बात मनोहर रूपादि के विषय में भी है।
परक्रिया निषेध - परक्रिया अर्थात् किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके शरीर पर की जाने वाली किसी भी प्रकार की क्रिया, यथा श्रृंगार, उपचार आदि स्वीकार करने का निषेध किया गया है। इसी प्रकार श्रमणश्रमणी के बीच की परक्रिया भी निषिद्ध है।
ममत्व मुक्ति- ममत्वमूलक आरम्भ और परिग्रह के फल की मीमांसा करते हुए भिक्षु को उनसे दूर रहने को कहा गया है। उसे पर्वत की भांति निश्चल और दृढ़ रहकर सर्प की केंचुली की भांति ममत्व को उतारकर फेंक देना चाहिए।
वीतरागता एवं सर्वज्ञता साधक-जीवन में प्रधानता एवं महत्ता केवलज्ञान- केवलदर्शन की नहीं है, • अपितु वीतरागता, वीतमोहता, निरास्रवता, निष्कषायता की है। जिसमें वीतरागता है वह सर्वज्ञ है- उसका ज्ञान निर्दोष है। जिसमें सरागता है वह अल्पज्ञ है- उसका ज्ञान सदोष है ।
श्रमण-श्रमणी चर्या के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र
1. श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त- ये सब शास्त्र - विहित आचरण करने वालों के नाम हैं।
2. परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत - आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब होते हैं। (साधु की ये चौदह उपमाएँ हैं ।)
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3. ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है, लेकिन असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए।
4. ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में लीन तथा इसी प्रकार के गुणों से युक्त संयमी को ही
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