Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011
जिनवाणी दोषों की जननी है। संखडि में भिक्षा के लिए जाने से भयंकर दोष लगते हैं। भिक्षा के लिये जाने वाले भिक्षु को कहा गया है कि वह अपने सब आवश्यक उपकरण साथ रखकर ही भिक्षा के लिये जाय। आचारांग में आगे बताया गया है कि भिक्षु को क्षत्रियों अर्थात् राजाओं के कुलों में, कुराजाओं के कुलों में, राजभृत्यों के कुलों में, राजवंश के कुलों में भिक्षा के लिये नहीं जाना चाहिये। भिक्षु के लिये सम्मिलित सामग्री ग्रहण का नियम औत्सर्गिक नहीं, अपितु आपवादिक है। ग्राह्यजल- भिक्षु के लिए निम्न प्रकार का जल ग्राह्य है। उत्स्वेदिम-पिसी हुई वस्तु को भिगोकर रखा हुआ पानी, संस्वेदिम-तिल आदि बिना पिसी वस्तु को धोकर रखा हुआ पानी, तण्डुलोदक-चावल का धोवन, तिलोदक-तिल का धोवन, तुषोदक- तुष का धोवन, यवोदक-यव का धोवन, आयामचावलों का मांड, आरनाल-कांजी, शुद्ध अचित्त-निर्जीव पानी, आम्रपानक-आम का पानक, द्राक्ष का पानी, बिल्व का पानी, अमचूर का पानी, अनार का पानी, खजूर का पानी, नारियल का पानी, केर का पानी, बेर का पानी, आंवले का पानी, इमली का पानी इत्यादि। अग्राह्य भोजन- भिक्षु पकाई हुई वस्तु ही भोजन के लिये ले सकता है, कच्ची नहीं। शय्यैषणा- आचारांग में कहा गया है कि जिस स्थान में गृहस्थ सकुटुम्ब रहते हों वहाँ भिक्षु नहीं रह सकता, क्योंकि ऐसे स्थान में रहने से अनेक दोष लगते हैं। ईर्यापथ- स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चार का ईर्यापथ में समावेश होता है। अपने समस्त उपकरण साथ में लेकर सावधानी पूर्वक गमन करने, शरीर के अवयव न हिलाने, हाथ न उछालने और पैर न पछाड़ने का नाम ईर्यापथ है। वर्षा ऋतु में भिक्षु को प्रवास नहीं करना चाहिये। मार्ग में नदी आदि आने पर उसे नाव की सहायता के बिना पार न कर सकने की स्थिति में ही भिक्षु नाव का उपयोग करे, अन्यथा नहीं। भाषा प्रयोग- आचारांग के चतुर्थ अध्ययन में भिक्षु को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए, किसके साथ कैसी भाषा बोलनी चाहिए, भाषा प्रयोग में किन बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए, इन सब बिन्दुओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। वस्त्र-धारण- जो भिक्षु तरुण हो, बलवान् हो, रुग्ण न हो उसे एक वस्त्र धारण करना चाहिये, दूसरा नहीं। भिक्षुणी को चार संघरियाँ धारण करनी चाहिये जिनमें एक दो हाथ चौड़ी हो, दो तीन हाथ चौड़ी हो
और एक चार हाथ चौड़ी हो। ऊँट आदि की ऊन से बना हुआ, द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की लार से बना हुआ, सन की छाल से बना हुआ, ताडपत्र के पत्तों से बना हुआ, कपास का बना हुआ तथा आक आदि की रूई से बना हुआ वस्त्र श्रमण काम में ले सकते हैं। जैन श्रमणों के लिये कम्बल आदि बहुमूल्य वस्त्र के उपयोग का स्पष्ट निषेध है। पात्रैषणा- तरुण, बलवान एवं स्वस्थ भिक्षु को केवल एक पात्र रखना चाहिये। यह पात्र अलाबु, काष्ठ अथवा मिट्टी का हो सकता है। बौद्ध श्रमणों के लिए मिट्टी व लोहे के पात्र का उपयोग विहित है, काष्ठ
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