Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| 10 जनवरी 2011 जिनवाणी
285 7. संग्रह समाज में आर्थिक विषमता पैदा करता है। अतः आंचारांग का कथन है कि मनुष्य अपने को __ संग्रह-परिग्रह से दूर रखे (36)। बहुत प्राप्त करके भी वह उसमें आसक्ति युक्त न बने (36)। 8. आचारांग में समतादर्शी (अर्हत्) की आज्ञापालन को कर्त्तव्य कहा गया है (83)। कहा है कि कुछ
लोग समतादर्शी की अनाज्ञा में भी तत्परता सहित होते हैं, कुछ लोग उसकी आज्ञा में भी आलसी होते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए (80)। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि क्या मनुष्य के द्वारा आज्ञापालन किये जाने को महत्त्व देना उसकी स्वतन्त्रता का हनन नहीं है? उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता का हनन तब होता है जब बुद्धि या तर्क से सुलझाई जाने वाली समस्याओं में भी आज्ञापालन को महत्त्व दिया जाय। किन्तु जहाँ बुद्धि की पहुँच न हो ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों के क्षेत्र में आत्मानुभवी (समतादर्शी) की आज्ञा का पालन ही साधक (अणगार) के लिए आत्म-विकास का माध्यम बन सकता है। संसार को जानने के लिए संशय अनिवार्य है (69),पर समाधि के लिए श्रद्धा अनिवार्य है (76)। इससे भी आगे चलें तो समाधि में पहुँचने के लिए समतादर्शी की आज्ञा में चलना आवश्यक है। संशय से विज्ञान जन्मता है, पर आत्मानुभवी की आज्ञा में चलने से ही समाधि अवस्था तक पहँचा जा सकता है। अतः आचारांग ने अर्हत की आज्ञा पालन को कर्तव्य कहकर आध्यात्मिक
रहस्यों को जानने के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया है। 9. मनुष्य लोक की प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है, उसकी पहुँच तो सामान्य कार्यों तक ही होती है। मूल्यों
का साधक (मुनि) व्यक्ति असाधारण व्यक्ति होता है। अतः उसको अपने क्रान्तिकारी कार्यों के लिए प्रशंसा मिलना कठिन होता है। प्रशंसा का इच्छुक प्रशंसा न मिलने पर कार्यों को निश्चय ही छोड़ देगा। आचारांग ने मनुष्य की इस वृत्ति को समझकर कहा है कि मूल्यों का साधक (मुनि) लोक के द्वारा प्रशंसित होने के लिए इच्छा ही न करे (65)। वह तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मूल्यों
की साधना से सदैव जुड़ा रहे। साधना की पूर्णता
साधना की पूर्णता होने पर हमें ऐसे महामानव के दर्शन होते हैं जो व्यक्ति के विकास और सामाजिक प्रगति के लिये प्रेरणा स्तम्भ होता है। आचारांग में ऐसे महामानव की विशेषताओं को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे द्रष्टा, अप्रमादी, जागृत, अनासक्त, वीर, कुशल आदि शब्दों से इंगित किया गया है। उस द्रष्टा के सम्बन्ध में कहा गया है कि “द्रष्टा के लिए कोई उपदेश नहीं है (38)। उसका कोई नाम नहीं है (71)। उसकी आँखें, विस्तृत होती हैं अर्थात् वह सम्पूर्ण लोक को देखने वाला होता है (44)। वह बन्धन और मुक्ति के विकल्पों से परे होता है (50)। वह शुभ-अशुभ आदि दोनों अन्तों से नहीं कहा जा सकता है, इसलिए वह द्वन्द्वातीत होता है (49-57) और लोक में किसी के द्वारा न छेदा जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, तथा न मारा जा सकता है (57)। वह पूर्ण जागरूकता से चलने वाला होता है, अतः वह वीर हिंसा में संलग्न नहीं होता है (42)। वह सदैव ही
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