Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || गुरु से संरक्षित होता है। उसे सांसारिकता के व्याल पथच्युत नहीं कर सकते, क्योंकि गुरु का सान्निध्य जो उसे प्राप्त
अनुशासन के ह्रास का प्रश्न
__उक्त समाचारी का विधिवत् पालन ही श्रमणधर्म का अनुशासन है। जहाँ कहीं भी उक्त समाचारी की उपेक्षा होती है, वहीं अनुशासन भंग होता है। साधु समाज में संघ, गच्छ, गण, समुदाय आदि सारी सामूहिकताएँ समाचारी के अनुपालन पर ही आधारित हैं, जहाँ इसका क्षय होगा वहीं संघ, गच्छ या गण के अनुशासन में भी क्षीणता आ जायेगी।
आज संघ या समाज में अनुशासन हास का प्रश्न सामने खड़ा है। स्खलनाओं के छिद्र बढ़ते जा रहे हैं। व्यवस्थाएँ कठिनाई से बन पाती हैं। बनकर भी टिक पाना कठिन हो रहा है, समाचारी अनुशासन का भंग हो रहा है तो इसके कुछ ऐसे कारण हैं जिन पर संक्षिप्त में विचार कर लेना आवश्यक है। (1) अयोग्य दीक्षा
श्रमणधर्म की आराधना मुक्तिमार्ग की आराधना की सर्वोत्कृष्ट साधना है। जो भी मुमुक्षु इस महामार्ग की साधना के लिए सम्प्रेरित हो उसका वैराग्य अन्तःस्फुरित, सुस्पष्ट और सम्पुष्ट होना चाहिए। श्रमणचर्या का कम से कम सामान्य बोध उसे वैराग्यावस्था में भी हो जाना चाहिए। साधुधर्म के विनय और अनुशासन का पाठ वह दीक्षित होने के पहले अच्छी तरह पढ़ ले। साधुधर्म के प्रति उसका उत्साह अगाध और निश्चल हो, ये सब विशिष्टताएँ हों तो ही उसे साधु-पर्याय के योग्य समझा जाये। ऐसा नहीं होकर बिना किसी पात्रता के या अपरिपूर्ण पात्रता के दीक्षित कर दिया जाये तो अनुशासनबद्धता की आशा करना दुराशा मात्र है। अतः समस्त गुरुजन जो दीक्षाएँ प्रदान करते हैं, मुमुक्षु की योग्यता का अंकन अवश्य करें। सुपात्र शिष्य ही गुरु और जिनशासन के अनुशासन का पालन कर सकेगा। (2) ज्ञानाभाव
शास्त्रों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जो भी जहाँ कहीं दीक्षित हुए, दीक्षा लेकर उन्होंने सर्वप्रथम द्वादशांगी का अध्ययन किया। यह परिपाटी आज विलुप्त-सी हो गई है। शास्त्रों का अध्ययन नहीं होने से नवदीक्षित साधु संयमधर्म की परमार्थता और उसके सूक्ष्म परिणमन को विधिवत् समझ नहीं पाता, शास्त्रीय रीतिनीति का ज्ञान भी उसे जो व्यवहार में दिखाई देता है उतना ही हो पाता है उससे आगे गम्भीर तत्त्व-ज्ञान का उसमें अभाव रहता है। इससे उसमें स्खलनाओं को समझना, उससे बचना इसका जो विशेष बोध होता है वह नहीं हो पाता, अतः दीक्षा देने के बाद नव-दीक्षितों को शास्त्रों के अध्ययन की तरफ प्रवृत्त करना चाहिए।
इसका अर्थ यह नहीं कि श्रमण शास्त्रों से भिन्न कोई अध्ययन न करे। शासन-प्रभावना के लिए उसके पास बहुआयामी अध्ययन होना चाहिए, किन्तु वह अध्ययन शास्त्रज्ञान के उपरान्त हो। केवल अन्य व्यावहारिक अध्ययन हो जाये और शास्त्रज्ञान नहीं होगा तो श्रमणधर्म में अनुशासन और उस धर्म की आराधना दोनों की क्षति हो सकती है।
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