Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
आसक्ति युक्त होता है और कुटिल आचरण में ही रत्त रहता है ( 22 ) । इस तरह वह अर्हत् (जीवन - मुक्त) की आज्ञा के विपरीत चलने वाला होता है (22,80 ) । स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होना ही अर्हत् की आज्ञा में रहना है। इस जगत में यह विचित्रता है कि सुख देने वाली वस्तु दुःख देने वाली बन जाती है और दुःख देने वाली वस्तु सुख देने वाली बन जाती है। मूर्च्छित मनुष्य इस बात को देख नहीं पाता है (35)। इसलिए वह सदैव वस्तुओं के प्रति आसक्त बना रहता है । यही उसका अज्ञान है (38)। विषयों में लोलुपता के कारण वह संसार में अपने लिये वैर की वृद्धि करता रहता है (39) और बार-बार जन्म धारण करता रहता है(46)। अतः कहा जा सकता है कि मूर्च्छित मनुष्य सदा सोया हुआ अर्थात् सन्मार्ग को भूला हुआ होता है (44) । इच्छाओं के तृप्त न होने पर वह शोक करता है, क्रोध करता है, दूसरों को सताता है और उनको नुकसान पहुँचाता है ( 37 ) । यहाँ यह समझना चाहिए कि सतत हिंसा में संलग्न रहने वाला व्यक्ति भयभीत व्यक्ति होता है। आचारांग ने ठीक ही कहा है कि प्रमादी ( मूर्च्छित ) व्यक्ति को सब ओर से भय होता है (62) । वह सदैव मानसिक तनावों से भरा रहता है। चूंकि उसके अनेक चित्त होते हैं, इसलिए उसका अपने लिए शान्ति ( तनाव मुक्ति) का दावा करना ऐसे ही है जैसे कोई चलनी को पानी से भरने का दावा करे (53) । मूर्च्छित मनुष्य संसार रूपी प्रवाह में तैरने के लिए बिल्कुल समर्थ नहीं होता है (33)। वह भोगों का अनुमोदन करने वाला होता है तथा दुःखों के भँवर में ही फिरता रहता है ( 34 ) । श्रमणाचार का आध्यात्मिक और नैतिक पक्ष
आचारांग सूत्र में सूत्रकार ने श्रमण (साधक) के लिए स्थान-स्थान पर आध्यात्मिक, प्रेरक तथा उनसे प्राप्त शिक्षाओं का उल्लेख किया है:
"
यह मूर्च्छित मनुष्यों का जगत् है । ऐसा होते हुए भी यह जगत् मनुष्य को ऐसे अनुभव प्रदान करने के लिये सक्षम है, जिनके द्वारा वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिये प्रेरणा प्रदान कर सकता है। मनुष्य कितना ही मूर्च्छित क्यों न हो फिर भी बुढ़ापा, मृत्यु और धन-वैभव की अस्थिरता उसको एक बार जगत् के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं। यह सच है कि कुछ मनुष्यों के लिए यह जगत् इन्द्रियतुष्टि का ही माध्यम बना रहता है ( 66 ), किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील बने रहते हैं कि जगत् उनकी मूर्च्छा को आखिर तोड़ ही देता है।
मनुष्य देखता है कि प्रतिक्षण उसकी आयु क्षीण हो रही है। अपनी बीती हुई आयु को देखकर वह व्याकुल होता है और बुढ़ापे में उसका मन गड़बड़ा जाता है। जिसके साथ वह रहता है, वे ही आत्मिकजन उसको भला-बुरा कहने लगते हैं और वह भी उन्हें भला-बुरा कहने लग जाता है। बुढ़ापे की अवस्था में वह मनोरंजन के लिए, क्रीड़ा के लिए तथा प्रेम के लिए नीरसता व्यक्त करता है ( 25 ) । अतः आचारांग का शिक्षण है आत्मीयजन मनुष्य के सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं और वह भी उनके सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होता है ( 25 ) । इस प्रकार मनुष्य बुढ़ापे को समझकर आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करे तथा संयम के लिए प्रयत्नशील बने और वर्तमान मनुष्य जीवन को देखकर आसक्ति रहित बनने का प्रयास करे
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