Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
ववहार, उत्तरज्झयण, दसवेयालिय, आवस्सय, आवस्सयणिज्जुत्ति आदि ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त अनेक आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड तथा मराठी आदि भाषाओं में रचित श्रमणाचार विषयक अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
श्रमणों की आचार-संहिता
आचार शब्द के तीन अर्थ हैं - आचरण, व्यवहार और आसेवन । सामान्यतः सिद्धांतों, आदर्शों और विधि-विधानों का व्यावहारिक अथवा क्रियात्मक पक्ष आचार कहा जाता है। सभी जैन तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा के अनेकानेक श्रमणों ने स्वयं आचार की साधना द्वारा भव-भ्रमण के दुःखों से सदा के लिए मुक्ति पायी, साथ ही मुमुक्षु जीवों को दुःख निवृत्ति का सच्चा मार्ग बताया। श्रमण होने का इच्छुक सर्वप्रथम बंधुवर्ग से पूछता और विदा मांगता है। तब बड़ों से, पुत्र तथा स्त्री से विमुक्त होकर, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों को अंगीकार करता है।' और सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त अपरिग्रही बनकर, स्नेह से रहित, शरीर संस्कार का सर्वथा के लिए त्याग कर आचार्य द्वारा 'यथाजात' (नग्न) रूप धारण कर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को अपने साथ लेकर चलता है।' मुनि के लिए श्वेताम्बर जैन परम्परा में दीक्षा के बाद निर्धारित वस्त्र - पात्र आदि का विधान है। जिन मूलगुणों को धारण कर साधक श्रमणधर्म (आचार मार्ग) स्वीकार करता है उनका विवेचन आगे प्रस्तुत है ।
मूलगुण
श्रमणाचार का प्रारम्भ मूलगुणों से होता है। आध्यात्मिक विकास द्वारा मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपनी आचार-संहिता के अन्तर्गत जिन गुणों को धारण करके जीवन पर्यन्त पूर्ण निष्ठा से पालन करने का संकल्प ग्रहण करता है, उन गुणों को मूलगुण कहा जाता है। वृक्ष की मूल (जड़ या बीज) की तरह ये गुण भी श्रमणाचार के लिये मूलाधार हैं। इसीलिए श्रमणों के प्रमुख या प्रधान आचरण होने से इनकी मूलगुण संज्ञा है। इन मूलगुणों की निर्धारित अट्ठाईस संख्या इस प्रकार है -
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"पंच य महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरूद्दिट्ठा । पंचेंदियरोहा छप्पिय आवासया लोचो ।। अचेलकमण्हाणं खिदिरायणमदंतघंसणं चेव ।
1.
2.
3.
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु||'
पाँच महाव्रत : हिंसा, विरति (अहिंसा), सत्य, अदत्तपरिवर्जन ( अचौर्य), ब्रह्मचर्य और संगविमुक्ति (अपरिग्रह) । *
पाँच समिति : र्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान और प्रतिष्ठापनिका ।'
पाँच इन्द्रियनिग्रह: चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा और स्पर्श - इन पाँच इन्द्रियों का निग्रह। '
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