Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 ॥ जीवन के अनुभवों से अभ्यासवश कह सकता है। अतः इन अवसरों पर अपने वचनों का
जागरूकता के साथ गोपन करे। 4. नदी अच्छे घाट वाली है, (भोजन के सम्बन्ध में) बहुत अच्छा पकाया, (पत्र-शाक) बहुत अच्छा
छेदा है, (चावल आदि) बहुत ही इष्ट है।- ऐसे वचन नहीं कहने चाहिए। 5. क्रय-विक्रय के प्रसंग में यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह माल अच्छा खरीदा, इस माल
को ले, यह बहुत महंगा होने वाला है, यह अच्छा बेचा, यह बेचने योग्य है आदि वचनों को कहने
से मुनि बचे। 6. सन्देशवाहक का कार्य मुनि को नहीं करना चाहिए। प्रज्ञावान मुनि गृहस्थ को बैठ, इधर आकर सो,
ठहर या खड़ा हो जा, चला जा- इस प्रकार न कहे। 7. मनुष्य और तिर्यञ्चों का आपस में विग्रह (झगड़ा) होने पर अमुक की विजय हो अथवा अमुक की
विजय न हो- ऐसा नहीं कहना चाहिए। 8. वायु, वर्षा, सर्दी, गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष और शिव- ये कब होंगे अथवा ये न हों तो अच्छा रहे- इस
प्रकार न कहे।
. इस प्रकार मुनि को सावध का अनुमोदन करने वाली, अवधारिणी और पर-उपघातकारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश नहीं बोलना चाहिए।
काय-गुप्ति ‘णाणस्स सारं आयारो' ज्ञान का सार आचार है। धर्मयुक्त क्रियाएँ आचार और अनाचार में विभाजित हैं। धर्म में धृतिमान श्रमण आचार को निभाता है और अनाचार से बचता है। अहिंसा आचार है और हिंसा अनाचार है, मोक्षलक्ष्यी क्रियाएँ आचार है और संसारलक्ष्यी अनाचार। आचार काया से सम्बद्ध है, अतः आचार के प्रतिपक्ष अनाचार में काया का गोपन काय-गुप्ति' है।
श्रमण के 52 अनाचार कहे गए हैं। दशवैकालिककार ने अनाचारों का तृतीय अध्याय में उल्लेख संख्या के निर्देश के बगैर किया है। इसकी चूर्णि और वृत्ति में भी संख्या का उल्लेख नहीं है। दशवैकालिक दीपिका में “सर्वमेतत् पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशद्भेदभिन्नमौद्देशिकादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम्"" कहकर 54 संख्या का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं1. औद्देशिक- साधु के निमित्त बनाए गए आहारादि का लेना। 2. क्रीतकृत- साधु के निमित्त क्रीत वस्तु का लेना। 3. नित्याग्र- निमन्त्रित होकर नित्य आहार लेना। 4. अभिहत- दूर से लाए गए आहारादि ग्रहण करना। 5. रात्रिभोजन करना।
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