Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
275 वाक्य-शुद्धि से संयम की शुद्धि होती है। अहिंसात्मक वाणी भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। यह शुद्धि विवेकयुक्त होने पर सम्भव है। भाषा का गोपन विवेक के साथ होता है तब वह वचन-गुप्ति है। अन्यथा गोचरी में दो मोदक बिना बताए खा लेने के बाद गुरु के पूछे जाने पर शिष्य का मौन रहना वचन गुप्ति' कहलाएगा। यह वचन का गोपन अविवेक युक्त होने से वचन-गुप्ति नहीं है। अतः विवेकहीन मौन का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा- ये चार भाषा के भेद किये गए हैं। असत्य और मिश्र भाषा मुनि के द्वारा सर्वथा त्याज्य हैं तथा सत्य और व्यवहार भाषा आचरणीय है। किन्तु इनमें भी जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है। सत्य व व्यवहार भाषा बोलने के अवसर पर मौन रहने योग्य स्थानों की चर्चा यहाँ की जा रही है।
___ सत्य होते हुए भी मुनि सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, शब्दकारी, छेदनकारी, भेदनकारी, परितापनकरी और भूतोपघातिनी सत्य भाषा न बोले।" जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वा।
वाहियं वा वि रोगी ति, तेणं चोरे ति नो वए।।" काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी तथा चोर को चोर नहीं कहना चाहिए।
लोक व्यवहार करते समय साधु को सावध, संशयकारिणी, मर्मकारी आदि भाषा से बचना चाहिए। इसके उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं1. 'हम जायेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो जाएगा', 'मैं यह करूँगा' अथवा 'यह व्यक्ति यह कार्य
करेगा'- इस प्रकार की भाषा जो भविष्य सम्बन्धी होने के कारण शंकित हो अथवा वर्तमान और
अतीत काल सम्बन्धी अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे मुनि को नहीं बोलना चाहिए।" 2. भाव-दोष सम्बन्धी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे स्त्री के लिए हे होले! हे गोले! हे
वसुले! ये मधुर आमंत्रण हैं तथा सामिणी और गोमिणी चाटुता के आमन्त्रण हैं। अतः भाव-दोष की दृष्टि से लोक व्यवहार में साधु द्वारा किये गए ये सम्बोधन आचरण योग्य नहीं हैं। गृहस्थ काल के सम्बन्धियों को हे आर्यिके! (दादी), प्रार्थिके! (परदादी) हे बुआ!, हे मौसी!, हे पिता!, हे चाचा!
आदि शब्दों से सम्बोधित नहीं करे।" 3. अग्रांकित सावध वचनों से साधु विरत रहे- मनुष्य, पशु-पक्षी और सांप को देख यह स्थूल, वध्य
अथवा पाक्य है, ऐसा न कहे। गायें दुहने योग्य हैं, बैल दमन करने योग्य है, वहन करने योग्य हैं। प्रासाद का परिसर स्तम्भ, तोरण, घर, परिघ, अर्गला, नौका और जल की कुंडी के लिए उपयुक्त है। ये फल पक्व हैं, औषधियाँ काटने योग्य हैं, भूनने योग्य हैं। ये सभी कथन साधु अपने गृहस्थ
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