Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
श्रमण को मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया, संयम में अरति युक्त हो गया, संयम को छोड़कर गृहस्थ बनना चाहता है तो उसे निम्नलिखित अठारह स्थानों का भलीभाँति आलोचन करना चाहिए । अस्थिरात्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है। अठारह स्थान इस प्रकार हैं
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1. अहो ! इस दुषमा (दुःख बहुल पांचवे ) आरे में लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं। 2. गृहस्थों के काम-भोग स्वल्प - सार - सहित (तुच्छ) और अल्पकालिक हैं। 3. मनुष्य प्रायः माया बहुल होते हैं।
4.
यह मेरा परीषह-जनित दुःख चिरकाल स्थायी नहीं होगा ।
5. गृहवासी को नीच जनों का पुरस्कार करना होता है- सत्कार करना होता है। 6. संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है- वमन को वापस पीना ।
7. संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है नारकीय जीवन का अंगीकार ।
8. अहो! गृहवास में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है।
9. वहाँ आतंक वध के लिए होता है।
10, वहाँ संकल्प वध के लिए होता है ।
11. गृहवास क्लेश सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित ।
12. गृहवास बन्धन है और मुनि - पर्याय मोक्ष ।
13. गृहवास सावद्य है और मुनि-पर्याय अनवद्य ।
14. गृहस्थों के कामभोग बहुजन सामान्य हैं- सर्व सुलभ हैं।
15. पुण्य और पाप अपना-अपना होता है।
16. ओह! मनुष्यों का जीवन अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है। 17. ओह! मैंने इससे पूर्व बहुत ही पाप कर्म किए हैं।
18. ओह! दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अर्जित किए हुए पाप कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर लेने पर ही मोक्ष होता है- उनसे छुटकारा होता है। उन्हें भ बिना मोक्ष नहीं होता- उनसे छुटकारा नहीं होता।
न - गुप्ति
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वचन
मोक्ष की साधना करते हुए मुनि वचन - व्यवहार भी करते हैं । वचन का व्यवहार कैसा होना चाहिए - यह समिति का विषय है, किन्तु वचन का कहाँ निग्रह करना है अर्थात् मौन रखना है- यह गुप्ति का विषय है। वचन की समिति और गुप्ति- इन दोनों के सम्बन्ध में 'वाक्य शुद्धि' नामक सातवें अध्याय में विस्तृत वर्णन है।
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