Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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|| 10 जनवरी 2011 || | जिनवाणी
217 जीर्ण शय्या और आसन तथा शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर आदि अनेक प्रकार के परीषहों के उत्पन्न होने पर अव्यग्र मन से सब कष्टों को सहन करता है, वही भिक्षु है। जो पूजा-सत्कार नहीं चाहता, वन्दना-प्रशंसा का इच्छुक नहीं है, वह संयती, सुव्रती, तपस्वी, आत्मगवेषी और सम्यग्ज्ञानी ही भिक्षु कहलाता है। जिनकी संगति से संयमी-जीवन का नाश और महामोह का बंध होता है, ऐसे स्त्री-पुरुषों की संगति को जो तपस्वी सदा के लिए छोड़ देता है तथा जो कौतूहल को प्राप्त नहीं होता, वही भिक्षु है। जो छेदनविद्या, स्वर-विद्या, भूकम्प, अंतरिक्ष, स्वप्न-लक्षण, दंड, वास्तु, अंगविचार, पशुपक्षियों की बोली जानना, इन विद्याओं से अपनी आजीविका नहीं करता- वही भिक्षु है। जो मंत्र, जड़ी-बूटी, विविध वैद्यप्रयोग, वमन, विरेचन, धूम्रयोग, आंख का अंजन, स्नान, आतुरता, माता-पितादि की शरण और चिकित्सा-इन सबको ज्ञान से हेय जानकर छोड़ देते हैं; क्षत्रिय, मल्ल, उग्रकुल, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक
और विविध प्रकार के शिल्पी, इनकी प्रशंसा और पूजा नहीं करता, इनकी सदोषता जानकर त्याग देता है, वही भिक्षु है। जो दीक्षा लेने के बाद या पहले जिन गृहस्थों को देखा हो, परिचय हुआ हो, उनके साथ इहलौकिक-फल की प्राप्ति के लिए विशेष परिचय नहीं करता, वही भिक्षु है। जो गृहस्थ के यहाँ आहार, पानी, शय्या, आसन तथा अनेक प्रकार के खादिम होते हुए भी वह नहीं दे और इनकार कर दे, तो भी उस पर द्वेष न करे, वही निर्ग्रन्थ भिक्षु है। गृहस्थों के यहाँ से आहार-पानी और अनेक प्रकार के खादिमस्वादिम प्राप्त करके जो बालवृद्धादि साधुओं पर अनुकम्पा करता है, मन, वचन और काया को वंश में रखता है, ओसामण, जौ का दलिया, ठंडा आहार, कांजी का पानी, जौ का पानी और नीरस आहारादि के मिलने पर जो निन्दा नहीं करता तथा प्रान्तकुल में गोचरी करता है, वही भिक्षु है। लोक में देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी अनेक प्रकार के महान् भयोत्पादक शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो चलित नहीं होता, वही भिक्षु है। लोक में प्रचलित अनेक प्रकार के वादों को जानकर जो विद्वान् साधु आत्महित में स्थिर होकर संयम में दृढ़ रहता है और परीषहों को सहन करता है तथा सब जीवों को अपने समान देखता हुआ उपशान्त रहकर किसी का बाधक नहीं बनता, वही भिक्षु है। अशिल्पजीवी, गृहरहित, मित्र और शत्रु से रहित, जितेन्द्रिय, सर्वथा मुक्त, अल्पकषायी, अल्पाहारी, परिग्रहत्यागी होकर जो एकाकी राग-द्वेष रहित विचरता है, वही भिक्षु है। बौद्ध-परम्परा में आदर्श श्रमण का स्वरूप
___ बौद्ध-परम्परा में सुत्तनिपात और धम्मपद में आदर्श श्रमण के स्वरूप का वर्णन है। सुत्तनिपात का कथन है- संगति से भय उत्पन्न होता है और गृहस्थी से राग, इसलिए मुनि एकान्त और गृहहीन जीवनको पसन्द करता है। जो उत्पन्न पाप को उच्छिन्न कर फिर उसे होने नहीं देता, जो उत्पन्न होते पाप को बढ़ने नहीं देता, उस एकान्तचारी शान्तिपद द्रष्टा महर्षि को मुनि कहते हैं। वस्तुस्थिति का बोध कर जिसने (संसार के) बीज को नष्ट कर दिया है, जो उसकी वृद्धि के लिए तरावट नहीं पहुँचाता, जो बुरे वितर्कों को त्यागकर अलौकिक हो गया है, आवागमन से मुक्त उस महात्मा को मुनि कहते हैं। मुनि सभी
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