Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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|| 10 जनवरी 2011 |
जिनवाणी श्रमण को व्यावहारिक भाषा में हम संत कहते हैं। संत के माहात्म्य का दिग्दर्शन करने वाली दो पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं
संतहृदय नवनीत समाना कहा कविन्ह पै कह्यहि न जाना।
निज परिताप द्रवई नवनीता, पर दुःख द्रवइ संत सुपुनीता।। अर्थात् कवियों ने अपने काव्यों में संतहृदय को नवनीत (मक्खन) के समान कोमल बताया है, पर उनका यह कथन इसलिए सही नहीं है एवं यह तुलना इसलिए गलत है क्योंकि मक्खन तो स्वयं को ताप लगे तब पिघलता है, पर संत हृदय पराये दुःख को देखकर द्रवित हो पिघल जाता है। अतएव संत हृदय नवनीत से कहीं ज्यादा कोमल एवं परदुःख कातर है। इसी तरह आचार्य समन्तभद्र श्रमणचर्या को इंगित करते हुए फरमाते हैं- “ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी प्रशस्यते।" अर्थात् वही श्रमण प्रशंसा को प्राप्त करता है जो ज्ञानी, ध्यानी एवं तपस्वी होता है।
श्रमण की व्याख्या करने के पश्चात् श्रावक कौन होता है, इसका भी उल्लेख करना नितान्त आवश्यक है। श्रावक शब्द की विभक्ति करें तो चार अक्षरों का मेल श्रावक है अर्थात् 'थ' 'अ' 'व' 'क'। 'श्र' श्रद्धानिष्ठता का द्योतक है तो 'अ' अहिंसा एवं अपरिग्रह के गुण को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। 'व' विवेक एवं व्यवहारकुशलता को परिलक्षित करता है तो 'क' कार्यकौशल एवं कर्मनिर्जरा के प्रयत्न का द्योतक है। जिस गृहस्थ में यह गुण हो वह श्रावक होने की पात्रता अर्जित करता है। तभी कवि दौलतराम जी फरमाते हैं-“सदन निवासी तदपि उदासी तातें आश्रव छंटाछंटी।" जो व्यक्ति निवृत्त भाव से सदन या आगार में रहे तथा मन में सदैव यह भाव या छटपटाहट बनी रहे कि इस गृहस्थ के झंझटों से कब किनारा करूँ तो ऐसे श्रावक के आस्रवों की टूटन होती है एवं वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है। गृहकार्य करते हुए भी जिनमें निवृत्ति की छटपटाहट हो एवं मन में वैराग्यभाव के प्रति अटूट श्रद्धा हो वह घर तपोवन है। ऐसा गृहस्थ श्रावक, गृहस्थ के वेष में भी साधु के सदृश ही है। प्रभु ने अपने एवं पंच परमेष्ठी के उपासकों को श्रावक कहा है। 'श्रावक' अर्थात् वह व्यक्ति जो एकाग्रता से वीतराग वाणी का श्रवण करे। हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का निर्णय करे एवं फिर उसे सम्यक् आचरण में उतारे । श्रवण का आंतरिक एवं एकाग्र होना आवश्यक है। श्रावक शब्द की विभक्ति करें तो 'थ' आंतरिक एवं एकाग्र श्रवण का द्योतक है तो ‘आवक' यानी उक्त वीतराग वाणी को हृदय में उतारे, उसे ग्रहण करे, तभी वह श्रावक बनता है। इस मनुष्य जन्मरूपी वृक्ष को यदि श्रावकत्व में ढालना है तो इससे छह फल प्राप्त करने आवश्यक हैं- "जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः सत्त्वानुकंपा, शुभपात्रदानम्। गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य नृजन्म वृक्षस्य फलान्यमूनि॥” इसका अर्थ है कि मनुष्य का श्रावकत्व तभी सार्थक है जब उसके हृदय मंदिर में वीतराग जिनेश्वर भगवंत सदा विराजमान रहें, वह वीतराग मार्ग के पथिक धर्मगुरुओं की सेवा एवं उपासना करने वाला हो, प्राणिमात्र के प्रति दया एवं अनुकंपा का भाव रखने वाला हो, सदैव सुपात्र दान हेतु पूरी गम्भीरता से तत्पर हो, गुणानुरागी हो एवं गुण जहां से भी प्राप्त हों
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