Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
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शासन में पंचयाम धर्म स्वीकार किया।
छेदोपस्थापनीय चारित्र में भी सामायिक चारित्र के समान 6 से 9 गुणस्थान हैं। यह भी आठ भवों में ही प्राप्त होता है। एक भव में जघन्य एक बार तथा उत्कृष्ट बीस पृथक्त्व अर्थात् दो बीसी से लेकर छ बीसी तक प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में 40 से लेकर 120 बार तक उत्कृष्ट एक भव में प्राप्त हो सकता है। आठ भवों में कुल मिलाकर 120 X 8 = 960 बार प्राप्त हो सकता है। अर्थात् छेदोपस्थापनीय संयत के अनेक भव (8 भव) में नौ
से ऊपर और एक हजार से कम आकर्ष होते हैं ।
10 जनवरी 2011
3. परिहार विशुद्धि चारित्र - जिस चारित्र के द्वारा कर्मों का अथवा दोषों का विशेष रूप से परिहार होकर, निर्जरा द्वारा विशेष शुद्धि हो, उसे परिहार 'विशुद्धि' चारित्र कहते हैं । अर्थात् तप विशेष द्वारा विशेष शुद्धि कराने वाला चारित्र परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है ।
इस चारित्र की आराधना 9 मुनि मिलकर करते हैं। इनमें चार साधु तप करते हैं। ये 'पारिहारिक' कहलाते हैं। चार साधु वैयावृत्त्य करते हैं। ये 'अनुपारिहारिक' कहलाते हैं। शेष एक वाचनाचार्य के रूप में रहते हैं, जिसे सभी साधु वन्दना करते हैं, उनसे प्रत्याख्यान लेते हैं, आलोचना करते हैं और शास्त्र श्रवण करते हैं। इस प्रक्रिया में 18 माह का समय लगता है। प्रथम छः माह में वैयावृत्त्य करने वाले द्वितीय छः माह में तप करते हैं। तप करने वाले वैयावृत्त्य करते हैं। वाचनाचार्य वहीं रहता है। अन्तिम छह माह में वाचनाचार्य तप करता है, सात साधु वैयावृत्य करते हैं, एक वाचनाचार्य होता है। इस प्रकार 18 माह में यह तप पूर्ण होता है। इसके पूर्ण होने पर या तो वे सभी मुनिराज पुनः इसी कल्प (तप) को प्रारंभ कर देते हैं। या जिनकल्प धारण कर लेते हैं या फिर पुनः अपने गच्छ में आ जाते हैं ।
परिहारविशुद्धि तप की आराधना वे ही साधु कर सकते हैं जिन्हें कम से कम नवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान हो तथा अधिकतम 10 पूर्वों का ज्ञान हो। जिनकी आयु कम से कम 29 वर्ष की हो तथा बीस वर्ष
दीक्षा पर्याय हो चुकी हो। यह चारित्र तीर्थंकर भगवान के पास अथवा जिन्होंने तीर्थंकर भगवान के पास पर चारित्र अंगीकार किया हो, उनके पास अंगीकार कर सकते हैं, अन्य के पास नहीं ।
परिहारविशुद्धि चारित्र में छठा व सातवाँ ये दो गुणस्थान ही होते हैं। इस चारित्र में रहते साधक किसी भी प्रकार की लब्धि का प्रयोग नहीं करते हैं। यह चारित्र एक भव में अधिकतम तीन बार प्राप्त हो सकता है तथा अनेक भवों में अधिकतम सात बार प्राप्त हो सकता है। कुल मिलाकर तीन भवों में ही प्राप्त होता हैं। यह चारित्र पूर्वज्ञान पर आधारित है अतः साध्वियों में नहीं पाया जाता है। यह चारित्र प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में ही पाया जाता है। अर्थात् महाविदेह क्षेत्र में तथा भरत-ऐरवत में मध्य के 22 तीर्थंकरों के शासन में यह चारित्र नहीं पाया जाता है।
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परिहार विशुद्धि संयत का जघन्य काल एक संयत की अपेक्षा एक समय (मरण की अपेक्षा) है तथा उत्कृष्ट काल देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष का है। यद्यपि इस चारित्र का काल 18 माह बताया है, किन्तु
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