Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 215
आदर्श श्रमण-जीवन का स्वरूप
प्रो. सागरमल जैन
एक आदर्श जैन श्रमण के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए इस आलेख में डॉ. सागरमल जी ने बौद्ध श्रमण की विशेषताओं से भी परिचित कराया है तथा जैन श्रमणाचार की कठोरता, निवृत्तिपरकता आदि के कारण उठने वाले आक्षेपों का सुन्दर एवं तार्किक निराकरण किया है।
बौद्ध श्रमण-परम्परा की अपेक्षा जैन श्रमण-परम्परा की श्रेष्ठता के साथ उन्होंने समाज में | नैतिक-व्यवस्था हेत उनकी भूमिका का महत्त्व प्रतिपादित किया है।-सम्पादक
आदर्श जैन-श्रमण का स्वरूप
बुद्धिमान पुरुषों के उपदेश से अथवा अन्य किसी निमित्त से गृहस्थाश्रम को छोड़कर जो त्यागी भिक्षु सदैव ज्ञानी महापुरुषों के वचनों में लीन रहता है, उनकी आज्ञानुसार ही आचरण करता है, नित्य चित्त को समाधि में लगाता है, स्त्रियों के मोहजाल में नहीं फँसता और वमन किए हुए भोगों को फिर भोगने की इच्छा नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधु ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के उत्तम वचनों में रुचि रखते हुए सूक्ष्म तथा स्थूल- दोनों प्रकार के षट् जीवनिकायों (प्रत्येक प्राणिसमूह) को आत्मवत् मानता है, पाँच महाव्रतों का धारक होता है और पांच प्रकार के पापाचारों (मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय तथा अशुभयोग के व्यापार) से रहित होता है, वही आदर्श साधु है। जो ज्ञानी साधु, क्रोध, मान, माया और लोभ का सदैव वमन करता रहता है, ज्ञानी पुरुषों के वचनों में अपने चित्त को स्थिर लगाए रहता है और सोना, चांदी, इत्यादि धन को छोड़ देता है, वही आदर्श साधु है। जो मूढ़ता को छोड़कर अपनी दृष्टि को शुद्ध (सम्यक्दृष्टि) रखता है; मन, वचन और काय का संयम रखता है; ज्ञान, तप और संयम में रहकर तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न करता है, वही आदर्श भिक्षु है तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार, पानी, खाद्य तथा स्वाद्य आदि सुन्दर पदार्थों की भिक्षा को कल या परसों के लिए संचय करके नहीं रखता और न दूसरों से रखवाता ही है, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधु कलहकारिणी, द्वेषकारिणी तथा पीड़ाकारिणी कथा नहीं कहता, निमित्त मिलने पर भी किसी पर क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को निश्चल रखता है, मन को शान्त रखता है, संयम में सर्वदा लीन रहता है तथा उपशमभाव को प्राप्त कर किसी का तिरस्कार नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है। जो कानों को काँटे के समान दुःख देने वाले आक्रोश वचनों, प्रहारों, और अयोग्य उपालम्भों (उलाहनों) को शान्तिपूर्वक सह लेता है, भयंकर एवं प्रचंड गर्जना के स्थानों में भी जो निर्भय रहता है और सुख तथा दुःख को समतापूर्वक भोग लेता है, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधु मास आदि की प्रतिमा, यानी अभिग्रह स्वीकार कर श्मशान में
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