Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 | सांसारिक-अवस्थाओं को जानकर उनमें से किसी एक की भी आशा नहीं करता। तृष्णा और लोलुपता से रहित वह मुनि पुण्य और पाप का संचय नहीं करता, क्योंकि वह संसार से परे हो गया है। जिसने सबको अभिभूत किया है, जान लिया है, जो बुद्धिमान है, जो सब बातों में अलिप्त रहता है, जिसने सबको त्यागा है और तृष्णा का क्षय कर मुक्त हुआ है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। एकचारी, अप्रमत्त, निन्दा-प्रशंसा से अविचलित, शब्द से त्रस्त न होने वाले, सिंह की तरह किसी से भी त्रस्त न होने वाले, जाल में न फँसने वाली वायु की तरह कहीं भी न फंसने वाले, जल से अलिप्त पद्म-पत्र की तरह कहीं भी लिप्त न होने वाले, दूसरों को मार्ग दिखाने वाले, दूसरों के अनुयायी न बनने वाले उस ज्ञानीजन को मुनि कहते हैं। जो खम्भे की तरह स्थिर है, जिस पर औरों की निन्दा-प्रशंसा का प्रभाव नहीं पड़ता, जो वीतराग और संयतइन्द्रिय है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। जो ऋजु और स्थिरचित्त वाला है, जो पापकर्मों से परहेज करता है
और जो विषमता तथा समता का खयाल रखता है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। जो संयमी है और पाप नहीं करता, जो आरम्भ और मध्यम वय में संयत रहता है, जो न स्वयं चिढ़ता है और न दूसरों को चिढ़ाता है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। जो अग्रभाग, मध्यभाग या अवशेषभाग से भिक्षा लेता है, जिसकी जीविका दूसरों के दिए पर निर्भर है और जो दायक की निन्दा या प्रशंसा नहीं करता, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। जो मैथुन से विरक्त हो एकाकी विचरण करता है, जो यौवन में भी कहीं आसक्त नहीं होता
और मद-प्रमाद से विरक्त तथा विप्रमुक्त है, उसे ज्ञानीजन मुनि कहते हैं। जिसने संसार को जान लिया है, जो परमार्थदर्शी है, जो संसाररूपी बाढ़ और समुद्र को पार कर स्थिर हो गया है, उस छिन्न ग्रंथिवाले को ज्ञानीजन मुनि कहते हैं।' जैन-श्रमणाचार पर आक्षेप और उनका उत्तर
अहिंसा पर निर्मित जैन नैतिक-नियमों को अत्यन्त कठोर, अव्यावहारिक और अत्यधिक बौद्धिक कहकर उनकी आलोचना की गई है।
जहाँ तक अहिंसा के सिद्धांत की बात है, वह अत्यधिक बौद्धिकता पर आधारित नहीं माना जा सकता। अहिंसा का मूल करुणा, अनुकम्पा, समानता की भावना और प्रेम है, जो बौद्धिकता की अपेक्षा अनुभूति का विषय है, फिर इन पर आधारित नियम अतिबौद्धिक कैसे हो सकते हैं?
अहिंसा के आधार पर निर्मित जैन साधु-जीवन के नैतिक-नियमों की कठोरता के विषय में जो आक्षेप है, उसका परिमार्जन आवश्यक है। जहाँ तक जैन आचार-विधि के नैतिक-नियमों की कठोरता की बात है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। आलोचकों के इस कथन में सत्यता का अंश अवश्य है। भगवान् बुद्ध ने भी गृधनाम पर्वत पर जैन-भिक्षुओं के कठोर आचरण तथा तपस्यादि देखकर उन भिक्षुओं के सम्मुख ही इस शारीरिक-कष्ट देने की पद्धति की आलोचना की थी।
इस आक्षेप का उत्तर कठोर आचरण के मूल्य को समझे बिना नहीं दिया जा सकता, यद्यपि इस प्रयास में हम आक्षेप के मुद्दे से थोड़े दूर होंगे, लेकिन यह आवश्यक है।
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