Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| 10 जनवरी 2011 |
| जिनवाणी | है। समिति-गुप्तियों का मापदण्ड अहिंसा' है। यह त्रिविध गुप्ति एकान्ततः निवृत्ति रूप ही नहीं, प्रवृत्ति रूप भी होती है, अतएव प्रवृत्ति अंश की अपेक्षा से उन्हें समिति कहते हैं। समिति में नियमतः गुप्ति होती है, क्योंकि उसमें शुभ में प्रवृत्ति के साथ जो अशुभ से निवृत्ति रूप अंश है, वह नियमतः गुप्ति अंश ही है। श्रमण
प्रवचन माताओं की आज्ञा का अक्षरशः आचरण करता है, जिससे वह कृतकृत्य हो जाता है। 12. प्रतिक्रमण- 'आवश्यक' आत्म-बोधि और आत्म शुद्धि का वैज्ञानिक उपक्रम है, करणीय अनुष्ठान है,
श्रावकत्व एवं श्रमणत्व की आधारशिला है। श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका के लिये प्रातःकाल एवं सायंकाल करना अनिवार्य है, जो षट्विध रूप है। उनकी क्रमशः अभिधा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान के रूप में है। इन आवश्यक अनुष्ठान द्वारा आत्मा रूप दर्पण में कर्मों की धूल को पोंछ देने पर परमात्मा रूप बिम्ब उसमें प्रतिबिम्बित हो जाता है। अध्यात्म साधक देह में रहते हुए भी विदेहत्व को साध लेता है। सामायिक आवश्यक में जिस समदर्शिता की साधना की जाती है, उसके लिये भी अहंशून्यता अनिवार्य है एवं अहंशून्यता की विधायक प्रक्रिया वन्दना है। वन्दना के अनन्तर 'प्रतिक्रमण' का क्रम है। साधक में प्रतिक्रमण ज्ञाता-द्रष्टा भावमयी साधना को वृद्धिंगत करता है। जिससे उसकी आत्मा पाप से पंकिल नहीं बनती है। प्रतिक्रमण प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त रूप है।" यह वह अग्निस्नान है, जो आत्म-कुन्दन को दीप्तिमय बना देता है। इतना ही नहीं, श्रमण का मन, शरद् ऋतु के निर्मल जल के समान विशुद्ध हो जाता है, और वह भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त होकर विचरण करता है।" यथार्थता यह है कि प्रतिक्रमण-आराधक साधक व्रतों एवं महाव्रतों की स्खलनाओं को बन्द कर देता है, और चारित्र में एकरूप होकर संयम में सम्यक् रूप से संस्थित रहता है। प्रति और क्रमण इन दोनों के संयोग से प्रतिक्रमण' शब्द का गठन हुआ है। प्रति का अर्थ- प्रतिकूल और क्रमण का तात्पर्य ‘पद निक्षेप' है। प्रतिकूल अर्थात् प्रत्यागमन, पुनः लौटना ही वस्तुतः प्रतिक्रमण है। आक्रमण में बहिरंग आग्रह है, जबकि प्रतिक्रमण में आन्तरिक अनुग्रह है। पाप से स्व में लौट कर आना प्रतिक्रमण' है। किं
बहुना, प्रतिक्रमण के द्वारा श्रमण के चलित चरण सदाचरण में परिणत हो जाते हैं। 13. गोचरी- यह वह शब्द है, जिसका आदि रूप 'गोयर' है। गोयर का अन्य रूप गोयरग्ग' भी है। इसका
वाच्यार्थ भी गाय के समान भिक्षा-प्राप्त्यर्थ भ्रमण करना है। गाय घास चरते समय स्वयं नितान्त जागृत रहती है। वह घास को इस प्रकार चरती है कि घास का मूलवंश सुरक्षित रह जाता है। इसी प्रकार श्रमण भी वस्तुतः मनःशास्त्र का ज्ञाता बन कर गृहस्थ के यहां पहुंचता है और उसे बिना कष्ट दिये नियमानुकूल यथायोग्य भिक्षा प्राप्त करता है। गृहस्थ पर उसके गृहीत आहार का किसी रूप से भार उत्पन्न नहीं होने देता है। वह श्रमण गृहस्वामी के अन्तर्मन को सजगता पुरस्सर पढ़ लेता है, उसके लिये अन्यान्य शुद्धियों के साथ भाव-शुद्धि सर्वोपरि है।
सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि श्रमण की आचार-संहिता स्पष्टतः विशिष्ट है, उसकी
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