Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी 10 जनवरी 2011 संकल्प-विकल्प रहित होकर पूर्ण समता में स्थित हो जाय तो इसे समाधि कहते हैं। जब शरीर से भी मन का अलगाव हो जाय और देह से देहातीत हो जाय तो कायोत्सर्ग कहलाता है। यह अवस्था. जब उच्चतम स्थिति में पहुँचती है तो कैवल्य अवस्था में पहुँच जाती है। यही मुक्ति की स्थिति है। यही स्वरूप में अवस्थित होना है।
बाहरी रोक व आचरण अस्थायी हैं तथा बाहरी आकर्षण मिलने पर आचरण से विचलित होना संभव है अतः कई तरह के नियम बनाए गए हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है। श्रमणाचार इसी दृष्टि से बनाया गया है, परन्तु जब अंतर में अवस्थित हो प्रज्ञा प्राप्त कर लेते हैं तो आन्तरिक विवेक ही मार्गदर्शक बन जाता है और बाहरी दबाव या दिखावे की आवश्यकता नहीं रहती। ज्ञाता को उपदेश की आवश्यकता नहीं है।
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अध्यात्मलीन हो मन जब नियंत्रण में आने लगता है तो बाहरी आचरण स्वतः निर्मल, उत्तेजनारहित और आदर्श हो जाता है । अन्तरंग शुद्ध है तो बाहरी आचरण शुद्ध हो जाता है। मन जब शुद्ध और निर्मल होता है तो मन में अनन्त करुणा व मैत्री प्रस्फुटित होती है। सब जीवों के साथ एकता की अनुभूति होती है। तब किसी को कष्ट देना तो दूर, दुःखी देखना भी असह्य हो जाता है। यह करुणा ही अहिंसा है जो अन्दर से बिना किसी उपदेश के प्रस्फुटित होकर आचरण में स्थायी रूप से आती है। अब उसकी संवेदना व्यापक हो जाती है, अतः वह सोचता है कि वह यदि असत्य बोलेगा तो किसी को कष्ट होगा, किसी की वस्तु चुराएगा तो उसे कष्ट होगा तो अतः वह करुणावान व्यक्ति कैसे झूठ बोलेगा या चोरी करेगा ? गहराई से देखें तो अहिंसा में ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह समाहित हैं। अतः अध्यात्म की ओर झुका व्यक्ति स्वतः ही महाव्रत या शील का पालक होता है।
जैन साधना में तप
जैन साधना में बारह प्रकार के तपों का प्रावधान है जिनमें से छः बाह्य हैं तथा छः आन्तरिक । (1) अनशन (उपवास), (2) ऊणोदरी (भूख से कम खाना), (3) भिक्षाचर्या (भीख लाकर ही भोजन करना, जिससे अहम् का विसर्जन हो), (4) रस - परित्याग (भोजन में रस लेना बंद करना व द्रव्यों के उपभोग पर सीमा लगाना), (5) कायक्लेश (सुखशीलता का त्याग ), ( 6 ) प्रतिसंलीनता (बहिर्मुखी वृत्तियों को अंतर्मुखी बनाना) ये छह बाह्य तप माने गए हैं। ये बाह्य तप हैं, लेकिन वैराग्य के हिस्से हैं और इनकी पालना के बिना मन वश में करना कठिन है। हम भोजन व विभिन्न व्यंजनों के लिए कितने लालायित रहते हैं? रसना कुछ न कुछ चटपटा, रसीला व्यंजन तलाशती रहती है। अतः अनशन, ऊणोदरी, रसपरित्याग जैसे तप रसना पर नियंत्रण के लिए हैं। जब तक मन अंतर्मुखी न बने तब तक बाह्य तप का महत्त्व है और जैसे ही मन अंतर्मुखी बन जाता है उसका इन सब चीजों में रस ही समाप्त हो जाता है और तब तप एक बाह्यातिरेक बन जाता है। इसके विपरीत (1) प्रायश्चित्त ( दोषों का शोधन करना) (2) विनय ( अहम् को गलाकर वंदन भाव में आना), (3) वैयावच्च (सेवा करना), (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान व (6) कयोत्सर्ग को आन्तरिक तप बताया है। स्वाध्याय से आगम व आप्तवाणी का बोध होता है। उसकी अनुभूति ध्यान में की जाती है। मन को आर्तध्यान व रौद्रध्यान त्याग कर
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