Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || सामायिक 1-2 दिन की, फिर छोड़ दी, 8-10 दिन बाद की और फिर महीने भर तक खूटी पर टाँग दी। जिस प्रकार उद्योग धंधा, शिक्षा, रसोई, वृक्ष को लगन के साथ मेहनत करने पर वर्षों सींचने, खाद डालने पर वह फलदायी बनता है। इसी तरह प्रतिदिन समभाव के अभ्यास से विषम भावनाओं का जंग-कचरा-जाला और जहर समाप्त होता है। यदि सामायिक का फल पाना चाहते हो तो शिक्षाव्रत से शिक्षा लें कि जो दुःख एवं असमाधि के कारण हैं उन उपाधियों से मुक्त होना है। साधना उन्हीं की सुफल होगी जो समस्त परिस्थितियों में समभाव पर दृढ़ रहते हैं। समता जबरदस्ती लायी जाने वाली चित्त की अवस्था नहीं है, सामायिक सही समझ का परिणाम है। सामायिक के साधक को इस भ्रम से भी बचना चाहिये कि सामायिक/ प्रतिक्रमण वाला कैसा भी पाप करे, उसका पाप छूमंतर हो जाता है। ऐसी सोच सामायिक का मूल्य घटाने वाली है। मात्र निर्जरा अथवा कर्मक्षय के लिये सामायिक आचार का पालन करना है। दशवैकालिक अध्ययन-9 की गाथा 3-4 संकेत कर सावधान कर रही है-“नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा' इस लोक, परलोक एवं सुख समृद्धि, कीर्ति, प्रशंसा आदि की दृष्टि से धर्माचरण नहीं करें। अतः दोषों को टाल, सावद्य प्रवृत्ति से पृथक् हो, निरवद्य प्रवृत्ति के वातावरण में विधिसहित नियमित रूप से साधनापूर्वक सामायिक की आराधना की जाय।सामायिक के साधक को सावध प्रवृत्तियों के प्रेरक-कुसंग, कुसम्पर्क, कुसाहित्य-कुदृश्यप्रेक्षण, दुश्चिंतन, दुर्व्यसन, दुर्ध्यान आदि दुष्प्रवृत्तियों से सतत बचते रहना चाहिये। निंदा, प्रशंसा, मान-अपमान एवं सर्व संयोग-वियोग को क्षणिक मान “इदमपि गमिष्यति' (यह भी चला जाएगा) के सूत्र पर आचरण वाला ही स्थितप्रज्ञ समभावी साधक होता है।
सामायिक की साधना केवल धर्मस्थान एवं 48 मिनट तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु इतनी विराट् हो कि जीवन की छोटी-बड़ी प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति एवं व्यवहार के माध्यम से अन्यों को भी आकर्षित करे, प्रभाव दिखावे। जैसे- सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की शीतलता, बादलों का पानी, शुद्ध वायु, अग्नि की उष्णता किसी एक क्षेत्र या व्यक्ति के अधिकार की बपौती नहीं है। वैसे ही साधना का प्रकाश किसी एक क्षेत्र या व्यक्ति तक सीमित नहीं, अपितु सर्वव्यापक है। धर्मस्थान में समता और बाहर निकलते ही विषमता। यह सच्चे सामायिक साधक का व्यवहार नहीं। उसे प्रतिकूल परिस्थिति में भी सहनशीलता बढ़ाकर दृढ़ता से सम्यक् व्यवहार करना चाहिए। यदि धर्मस्थान में भी अभ्यास कच्चा रहा, समता की उपासना नहीं कर सका, निद्रा, विषय, कषाय, विषमता को हटा न सका, मन-वाणी-काया को नहीं साध सका तो द्रव्य सामायिक भी भाव सामायिक के लक्ष्य से कोसों दूर है। वास्तविक भान पाने वाले के लिये सामायिक के शब्दों की व्याख्या व अर्थ को भी समझें- वास्तव में सामायिक का अर्थ और उद्देश्य प्राणिमात्र को आत्मवत् समझते हुए समत्व का व्यवहार करना है। समसमभाव, सर्वत्र, आत्मवत् प्रवृत्ति, आय-लाभ, जिस प्रवृत्ति से, क्रिया से समभाव का लाभ हो, वृद्धि हो, वही सामायिक है। राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थ (सम) रहना, विषम न होना सामायिक है।
समस्त जीवों पर मैत्री रखना साम है और उसकी आय सामायिक है। कई आचार्य ज्ञान-दर्शन-चारित्र
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