Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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ध्यान, मौन, स्वाध्यायादि से मन शुभ भावों में रमण करता है । दशवैकालिक चूर्णि में कहा है- “मणसंजमो णाम अकुसलमणनिरोहो, कुसलमणउदीरणं वा” अर्थात् अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्तन ही मन का संयम है। उत्तराध्ययन सूत्र के तेईसवें अध्ययन में केशी श्रमण से गौतम स्वामी कहते हैं
मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ ।
तं सम्मं तु णिगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥
यह मन बड़ा साहसिक, भयंकर और दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तेजी से चारों ओर दौड़ रहा है। मैं धर्मशिक्षा रूपी लगाम से उसे अच्छी तरह वश में किए हुए हूँ । धर्मशिक्षा की लगाम लगाये बिना मन संयम में प्रवृत्त नहीं हो सकता, इस सत्य को समझने वाला श्रमण मनसमित होता है। आचारांग में कहा है- "मणं परिजाणइ से णिग्गंथे” जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रथ श्रमण होता है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है ॥
श्रमण का नौवां लक्षण है- "वयसमिए" वचन संयम में प्रवृत्त रहने वाला श्रमण होता है। ऐसा श्रमण कभी हास्य-भय-द्वेष-क्लेशकारी वचन नहीं बोलता और बोलने से पहले " अणुविचितिया वियागरे” सोच-विचार कर बोलता है। बोलने से पहले सोचना समझदारी है और बोलने के बाद सोचना नासमझी है। हित- मित-मृदु और विचारपूर्वक बोलना न केवल वाणी का संयम है, बल्कि वाणी का विनय भी है। ऐसा वचन संयम और वाणी विनय श्रमण अपने जीवन में धारण करते हैं। "नाइवेलं वएज्जा" सूत्रकृतांग में साधक के लिए कहा गया है कि वह असमय में न बोले, क्योंकि असमय में एवं अधिक बोलना वाचालता है और वाचालता सत्य वचन का विघात करने वाली है। वचन समिति से समित श्रमण निरवद्य बोलकर जिनशासन की महती प्रभावना करता है । हे श्रमण ! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है ।
श्रमण का दसवाँ लक्षण है - "कायसमिए " श्रमण काया की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाये, उन्हें असंयमकारी प्रवृत्तियों में न लगाये, बल्कि तप-संयम में अपनी काया को समर्पित कर दे। आचारांग में कहा है"एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं" साधक आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को धुन डाले । “कसेहिं अप्पाणं जरेहिं अप्पाणं" अपनी काया को कृश करे, अपनी काया को जीर्ण करे। तन-मन को हल्का करे, भोगवृत्ति को जर्जर करे। इस आगम- आज्ञा को सन्मुख रखकर श्रमण काया के ममत्व का व्युत्सर्ग करे और इस काया को तप में लगाए। कहा है
बलं थामं च पेहाए, सद्धमारोग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विण्णाय, तहप्पाणं निजुंजर ॥
अर्थात् अपना बल, दृढ़ता, श्रद्धा, आरोग्य तथा क्षेत्र - काल को देखकर साधक अपनी आत्मा को तपश्चर्या में लगाए। यही काय संयम इंन्द्रियों की दासता से मुक्ति दिलाता है। हे श्रमण ! इस अर्थ में सचमुच में तू महान है ॥
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