Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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जैन परम्परा
में
का स्वरूप
गुरु
श्री पारसमल चण्डालिया
जैन परम्परा में सुसाधु ही गुरु है। सुसाधु कौन होता है, उसका क्या स्वरूप है तथा उसे गुरु क्यों मानना चाहिए, आदि बिन्दुओं पर प्रस्तुत आलेख में सम्यक् प्रकाश डाला गया है । -सम्पादक
1. गुरु कौन ? :
मनुष्य के अंतःकरण में व्याप्त सघन अंधकार को जो विनष्ट कर देता है, जो विवेक का आलोक फैला देता है वह 'गुरु' कहलाता है। ज्ञान एवं आचरण में जो अपने से श्रेष्ठ होते हैं, त्याग और वैराग्य में जो अपने लिए आदर्श होते हैं, वे 'गुरु' कहलाते हैं। शास्त्र एवं टीका ग्रंथों में गुरु की अनेक व्याख्याएं मिलती हैं। जो धर्मज्ञ, धर्माचारी और धर्ममय जीवन जीते हुए धर्म एवं शास्त्र का उपदेश करता है, वह 'गुरु' होता है । जीवन रथ को मार्ग से बचा कर सन्मार्ग पर चलाने के लिए और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए योग्य गुरु की अनिवार्य आवश्कता है।
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2. जैन धर्म में गुरु तत्त्व :
जैन धर्म में तीन तत्त्व बताए हैं - (1) देव, (2) गुरु और (3) धर्म कर्म शत्रु का नाश करने वाले अठारह दोष रहित, सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशक अरिहंत भगवान् देव हैं। निर्ग्रन्थ (परिग्रह रहित), कनक कामिनी के त्यागी, पंच महाव्रत धारक, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति युक्त, षट्कायिक जीवों के रक्षक, सत्ताईस गुणों से भूषित और वीतराग की आज्ञा अनुसार विचरने वाले धर्मोपदेशक साधु महात्मा गुरु हैं। सर्वज्ञभाषित दयामय, विनयमूलक, आत्मा और कर्म का भेद ज्ञान कराने वाला, मोक्ष का प्ररूपक शास्त्र धर्मतत्त्व है।
देव, गुरु और धर्म इन तीन तत्त्वों में भी गुरु का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि गुरु ही देव और धर्म की सच्ची पहचान कराने वाले हैं। यही कारण है कि जैनागमों में स्थान-स्थान पर गुरु महिमा का वर्णन किया गया
है।
'गुरु' तत्त्व को स्वीकारने से पूर्व उसे जानना - पहचानना व मानना आवश्यक है, इसीलिये कहा जाता है - 'पानी पीजे छान के, गुरु कीजे जान के ।' क्योंकि जिसका गुरु तत्त्व उत्तम है उसका देव तत्त्व और धर्म तत्त्व भी निश्चय ही उत्तम होगा। अतः गुरु की सच्ची पहिचान कर उस पर श्रद्धा और समर्पण की नितांत आवश्यकता
है।
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