Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || सन्तों से सुनते । भगवन्त ने हम सन्तों को भी खूब पढ़ाया । स्वस्थ रहते हुए एक भी दिन का अवकाश नहीं। 1 दिसम्बर 1992 को जलगाँव से विहार यात्रा प्रारम्भ हुई। कभी हमको विलम्ब हो जाता, तो उपालम्भ मिलता, परन्तु भगवन्त ने कभी भी देरी नहीं की। दशवैकालिक सूत्र और संस्कृत का अभ्यास प्रारम्भ करवाया। भगवन्त प्रेरणा करते कभी थकते नहीं थे। वे सारणा, वारणा धारणा-करते । हमें जागरूक रहने की शिक्षा देते । आचार्य दीप के समान होते हैं “दीवसमा आयरिया।' वे स्वयं के जीवन को प्रकाशित करते हुए दूसरे के जीवन को प्रकाशित करते हैं । गुरुदेव बोलते या नहीं, उनका आचार बोलता था । आचार स्वयं प्रेरणा करता है।
संघ के प्रति समर्पण और स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार के प्रति निरन्तर प्रयास आज भी हमें प्रेरणा दे रहा है। वीरपुत्र घेवरचन्द जी महाराज कहते थे- हस्ती गुरु की क्या पहिचान सामायिक-स्वाध्याय महान् ।'
आचार्य श्री हस्ती चतुर्विध संघ की मुकुटमणि थे। वे व्यक्ति नहीं, संस्था नहीं, आचार्य नहीं, अपितु युग पुरुष थे। उन्होंने युग की परिस्थितियों को देखा, समझा और पाटा । अपने गुरुत्व को बखूबी निभाया । आप स्वयं बहुत विशिष्ट दर्जेके साहित्यकार थे और अपने शिष्य शिष्याओं में भी यही गुण देखना चाहते थे। साध्वीप्रमुखा, शासनप्रभाविका श्री मैनासुन्दरी जी म.सा. ने बताया कि होगी कोई 40 से 45 वर्ष पुरानी बात । गुरु भगवन्त ने उनसे पूछा कि महासती मैनाजी दिन को आप जो पढती हैं क्या रात्रि को सोते समय उसका स्मरण आपको होता है। उन्होंने कहा- हाँ भगवन्! मुझे दिन की पठित बातें रात को बहुत याद आती हैं । गुरुदेव ने उनको प्रेरणा दी कि उसे सुबह उठते ही नित्यकर्म से निवृत्त होकर लिख लिया करना । और उन्होंने गुरु आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। उन्होंने बतलाया कि आज मैं जो कुछ हूँ- चतुर्विध संघ के समक्ष हूँ। यह सब मेरी नहीं उस घड़ने वाले महापुरुष की अनूठी कृपा दृष्टि का फल है।
वास्तव में गुरु शिष्य का जन्मदाता नहीं, परन्तु माता-पिता से भी बढ़कर निर्माणकर्ता होता है। वह जीवन जीना सिखाता है। यही कारण है कि माता-पिता की अपेक्षा भी गुरु के प्रति शिष्य विशेष ऋणी है। अलेक्जेंडर मेसीडोन ने भी इस बात का समर्थन करते हुए कहा कि “जीवन देने के लिए मैं अपने पिता का ऋणी हूँ, लेकिन उससे भी बढ़कर गुरु का ऋणी हूँ जिन्होंने मुझे अच्छी तरह जीवन जीना सिखाया।"
गुरु जीवन का महान कलाकार होता है। जैसे भौंडे, भद्दे, टेढे-मेढे खुरदरे पत्थर को लेकर मूर्तिकार अपनी छैनी एवं औजारों से उसे काट छीलकर सुन्दर देवमूर्ति बना देता है जो भविष्य में पूजनीय बन जाती है वैसे ही गुरु असंस्कृत, अनघड, अप्रशिक्षित शिष्य को अपनी वाणी और मन से प्रदत्त शिक्षा द्वारा घड़कर सुन्दर स्वच्छ सुसंस्कृत प्रशिक्षित जीवन का रूप दे देता है। इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में गुरु को शिष्य के जीवन का सुधारक, निर्माणकर्ता एवं परम उपकारी बताया है।
जैसे कपड़ा को थान दरजी बेतत आन खंड-खंड करे जाण देत सो सुधारी हैं काष्ठ को ज्यों सूत्रधार, हेम को कसे सुनार माटी को ज्यों कुम्भकार पात्र करे त्यारी है।
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