Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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|| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी रूपी वृक्ष की शाखा, प्रशाखा के समान गुण हों, वे उत्तरगुण कहलाते हैं। श्वेताम्बर मान्यता में सामान्यतया साधु के पाँच मूलगुण (अहिंसा आदि पाँच महाव्रत) एवं बाईस उत्तरगुण प्रतिपादित हैं। 22 उत्तरगुण हैं- 1-5. इन्द्रिय-दमन, 6-9. कषाय-निवारण, 10. भाव के सच्चे, 11. करण के सच्चे, 12. योग के सच्चे, 13. क्षमावान, 14. वैराग्यवान, 15. मन-समाधारणता (वश में करना), 16. वचनसमाधारणता, 17. काय-समाधारणता, 18. ज्ञान सम्पन्नता 19. दर्शन सम्पन्नता, 20. चारित्र सम्पन्नता, 21. वेयणासमा अहियासणया- वेदना को समता से अधिसहन करना, 22. माणतिय अहियासणयामारणंतिक कष्ट को भी अधि सहना। इसी प्रकार श्री भगवतीसूत्र के 12 वें शतक के पहले उद्देशक में 'तीन जागरणा' के वर्णन में मूलगुण एवं उत्तरगुण का विवेचन मिलता है, वहाँ चरणसत्तरि (मूलगुण) के 70 भेद हैं
वय-समणधम्म, संजम-वेयावच्चं च बंभगुतीओ।
णाणाइतीय तव, कोह-णिग्गहाइ चरणमेयं ।। अर्थात् 5 महाव्रत, 10 यतिधर्म, 17 प्रकार का संयम, 10 प्रकार की वैयावच्च, ब्रह्मचर्य की 9 वाड़, 3 रत्न (ज्ञान-दर्शन-चारित्र), 12 प्रकार का तप, 4 कषाय का निग्रह, ये सभी मिला कर चरणसत्तरि के 70 भेद हुए। इसी प्रकार करणसत्तरि (उत्तरगुण)के 70 भेद हैं -
पिंडविसोही समिई, भावणा-पडिमा इंदिय-णिग्गहो य।
पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहं चेव करणं तु॥ अर्थात् 4 प्रकार की पिण्ड-विशुद्धि, 5 समिति, 12 भावना, 12 भिक्षु-प्रतिमा, 5 इन्द्रियों का निरोध, 25 प्रकार की पडिलेहणा, 3 गुप्ति, 4 अभिग्रह, ये सभी मिला कर 70 भेद हुए। इसी प्रकार जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (भाग 1) में साधुओं के लिए पाँच महाव्रत मूलगुण हैं तथा श्रावकों के लिए पाँच अणुव्रत मूलगुण हैं। गुरुतत्त्वविनिश्चय के अनुसार भी पाँच ही मूलगुण हैं, किन्तु उत्तरगुण 103 गिनाये हैं। उत्तरगुणों में 42 पिण्डविशुद्धि, 8 समिति, 25 भावना, 12 तप, 12 प्रतिमा और 4 अभिग्रह हैं। यहाँ समिति में ही तीन गुप्ति का समावेश कर लिया है, इसीलिए समिति के 8 भेद बताए हैं। लेकिन दिगम्बरपरम्परा में साधु के 28 मूलगुण इस प्रकार वर्णित हैं- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय-निग्रह, छह आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन, एकभक्त एवं उत्तरगुणों की संख्या अधिक है।
उपर्युक्त गुणों से सम्बद्ध एवं कुछ सामान्य गुण सद्गुरु में होते हैं, जिन्हें हम देखकर जान सकते हैं कि यह सद्गुरु है, यथा(1) सर्वतोभावेन समर्पण- सद्गुरु सदैव तीर्थंकर की आज्ञा में तत्पर रहते हैं, तीर्थंकर की आज्ञा के सामने वे कभी अपना छंद नहीं रखते हैं, क्योंकि 'आज्ञा में अपील नहीं और समर्पण में सवाल नहीं' यही सद्गुरु जीवन का मूल मंत्र होता है। ‘आणाए मामगं धम्म' अर्थात् तीर्थंकर की आज्ञा ही मेरा धर्म है। इस
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