Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 ॥ प्रणीत रस-भोजन साधना का तीसरा विष है। संयमी पुरुष 6 कारणों से आहार करता है, जैसे-1. क्षुधा-निवारण, 2. वैयावृत्त्य, 3. ईर्या शोधन, 4. संयम-निर्वाह, 5. प्राणधारण और 6. धर्मचिन्ता। साधक स्वाद के लिये नहीं खाता, बल बढ़ाने या रंग रूप के लिये भी नहीं खाता। 'संजम-भारवहणट्ठयाए अक्खो वंजण-वण-लेवाणुभूयं' संयम भार को वहन करने के लिये संयमी ऐसा भोजन करे जैसे चाक की नाभि में तेल और घाव पर लेप लगाया जाता है। स्निग्ध, भारी एवं विकार-वर्धक आहार नहीं करे, क्योंकि प्रमाण से अधिक रस के भोजन सेवन से शरीर में उत्तेजना बढ़ती है और दर्प युक्त को काम आ घेरता है, जैसे स्वाद फल वाले वृक्ष को पक्षी आ घेरते हैं। ब्रह्मचारी को नित्य दुग्ध आदि सरस भोजन नहीं करना, कदाचित् प्रणीत रस का भोजन हो जाय तो जप-तप शास्त्राभ्यास या सेवा से सार निकालना चाहिए। शास्त्र में कहा है-"जो दूध, दही, घी आदि विगय का बार-बार सेवन करता और तपस्या के समय अरति करता है, खेद मानता है उसे पाप श्रमण समझना चाहिए।" तरुण साधुओं को बिना कारण प्रहर दिन पहिले नहीं खाना चाहिए और शक्ति अनुसार पर्व तिथियों पर व्रत-साधन का ध्यान रखना चाहिये। मानी हुई बात है कि भोजन का विचार और साधना पर भी बड़ा असर पड़ता है। वैदिक परम्परा में भी कहा है कि "युक्ताहार-विहारस्य योगो भवति दुःखहा।" उसी का योगसाधन दुःखनाशक बनता है जो उचित आहार-विहार वाला है।
- अनादि अविद्या का प्रभाव है कि प्राणी राम का साधन सिखाने पर भी नहीं करता और काम की ओर बिना शिक्षा भी दौड़ता है। कहा भी है नः
रहिमन राम न उर बसे, रहत विषय लपटाय।
पशुखर खात सवादसों, गुड गुलियाइ खाय।। इस प्रकार विषयों में बलात् मन के जाने का प्रधान कारण विकृत आहार है। विगइ और महाविगइ नाम रखने के पीछे भी उनका गुणधर्म रहा हुआ है। दूध, दही, घृत आदि को विकार-वर्धक मानकर जहाँ विगइ कहा है वहाँ मधु, मद्य एवं मांस आदि को महाविगइ कहा है। संयमी मुनि के विशेषण में शास्त्रकार ने “अन्ताहारे, पन्ताहारे, अरसाहारे, विरसाहारे, लुहाहारे, तुच्छाहारे" पद कहे हैं। साधक मुनि का भोजन प्रधानता से सरसाहार नहीं होता। अन्य मतों के साधक भी ब्रह्मचर्य की साधना के लिये फल, फूल, सिवार आदि से निर्वाह करना उचित मानते हैं। उत्तेजक आहार वहाँ भी अग्राह्य माना है।
भृर्तहरि जैसे प्रसिद्ध योगी जो नीति के पारायण और काम कला के पूर्ण अनुभवी थे, ने नीतिशतक, वैराग्यशतक और शृंगारशतक की रचना की। मनोहर रूपा नारी को संसार तरु का फल मानने वाले जब उसकी असलियत समझ गये तो धिक्कार देते हुए निकले और वैराग्य रंग में रंग कर जब विषय से विमुख हुए तो ब्रह्मचारी के आहार-विहार का विचार किया।
सरस आहार से बलवीर्य की वृद्धि होती है और इन्द्रिय एवं मन में उत्तेजना आती है। इसलिये शास्त्र में भी कहा है कि प्रणीत आहार करने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका होगी, कांक्षा होगी,
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