Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 ||
| 10 जन चन्द्रापीड के जब यौवराज्याभिषेक की तैयारियां की जा रही थीं तब मन्त्री शुकनास ने उपदेश देते हुए कहा कि 'यौवन' में स्वभावतः ही एक ऐसा अन्धकार उत्पन्न होता है जो सूर्य के द्वारा भी अभेद्य है, जिसे न तो किसी मणि के आलोक से और न ही किसी दीपक की आभा से दूर किया जा सकता
शुकनास ने 'लक्ष्मी' के मद को ऐसा भीषण बताया है जो कि उम्र बीत जाने पर भी शान्त नहीं होता है। वास्तव में धन से उत्पन्न नशा कभी दूर नहीं होता है।
'ऐश्वर्य' की तुलना तिमिरान्ध (रतौंधी) रोग से की गई है" और अहङ्कार को अनेकशः शीतोपचार से भी नहीं शान्त होने वाले भीषण दाहक ज्वर के सदृश बताया है। श्री शंकराचार्य ने भी अहङ्कार को नीरोगी रहने में बाधक माना है। उन्होंने अहङ्कार को महाभयङ्कर सर्प की उपमा दी है और कहा है कि जब तक शरीर में इस सर्प का थोड़ा सा भी विष रहेगा तब तक वह मनुष्य को नीरोगी नहीं रहने देगा।" इसका एकमात्र उपचार उन्होंने 'विज्ञान' को ही माना है। इस अहङ्कार रूपी शत्रु को ज्ञान रूपी महाखड्ग से छिन्न किया जा सकता है। अतः अहङ्कार का नाश अत्यावश्यक है जो ज्ञान से ही होगा और 'गुरु बिन ज्ञान कहाँ?'
शुकनासोपदेश में 'विषय' की तुलना विष से की गई है। विष से जायमान मूर्छा तो मन्त्रोपचार अथवा जड़ी-बूटियों से दूर की जा सकती है, परन्तु विषय रूपी विष के आस्वादन से उत्पन्न मोह रूप मूर्छा तो मन्त्रों और जड़ी-बूटियों से भी अभेद्य है। 'राग' को नित्यस्नान से भी शुद्ध न होने वाले मल के लेप की संज्ञा दी गई है। राजसुख' को कभी न टूटने वाली भीषण निद्रा के सदृश बताया है।
जन्म से ही ऐश्वर्यलाभ, नवयौवन, अनुपम सौन्दर्य और अमानुषी शक्ति-यह अनर्थ की एक ऐसी शृंङ्खला है, जिसकी प्रत्येक कड़ी अपने आप में सभी अवगुणों के आधान के लिए पर्याप्त है। जहाँ यह सम्पूर्ण समवाय (शृंङ्खला) विद्यमान हो, वहाँ तो कहना ही क्या?” इस अनर्थ से मुक्ति तो केवल गुरु के मार्गदर्शन से ही हो सकती है। अतः मन्त्री शुकनास ने भवबन्धन में बाँधने वाले और अनर्थ के इन कारकों के दुष्प्रभावों की विस्तृत व्याख्या करते हुए गुरु के उपदेश के महत्त्व को चन्द्रापीड के सम्मुख रखा है। यह चन्द्रापीड कोई भी हो सकता है- एक विद्यार्थी, नवयुवक, सत्ताधारी, बलशाली अथवा कोई भी शुभेच्छु। गुरूपदेश द्वारा यौवनजन्य विकारों का अवबोधन
__ युवावस्था में शास्त्रज्ञान से निर्मल बुद्धि भी कलुषित रहती है। यौवनारम्भ में शास्त्रों का ज्ञान भी बुद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। धवल होते हुए भी नेत्र 'राग' की लालिमा से लाल रहते हैं और रजोगुण की प्रबलता आंधी के द्वारा सूखे पत्तों की भाँति मनुष्य को बहुत दूर तक उड़ा ले जाती है। रजोगुण को ही
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