Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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जैन परम्परा में गुरु का वैशिष्ट्य
श्री मनोहरलाल जैन
गुरु की महत्ता वैदिक एवं श्रमण दोनों परम्पराओं में मान्य है । लेखक ने वैदिक परम्परा से श्रमण परम्परा के गुरु-तत्त्व को दो आधार पर पृथक् किया है। एक तो यह है कि वैदिक परम्परा में गुरु को व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है वहाँ वह जैन परम्परा में गुणों के आधार पर स्थापित है। दूसरा यह है कि वैदिक परम्परा में 'गुरु बिन ज्ञान नहीं' की मान्यता है वहाँ जैन परम्परा में 'स्वयंबुद्ध' एवं 'प्रत्येकबुद्ध' गुरु के बिना भी बोधि प्राप्त करने वाले स्वीकार किए गए हैं। -सम्पादक
आर्य संस्कृति की दो धाराओं 'श्रमण' एवं 'वैदिक' परम्परा में गुरु को समान रूप से महत्त्व दिया गया है। इसी कारण कहा गया है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं । भक्तिकालीन एवं निर्गुण उपासक कतिपय कवियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि “शीष कटाये गुरु मिले तो भी सस्तो जाण ।"
वैदिक परम्परा से प्रभावित चिन्तन धारा में गुरु को प्रधानता तो दी है, साथ ही व्यक्ति विशेष कोही गुरु पद पर प्रतिष्ठित किया गया है । श्रमण परम्परा में गुरु को किसी व्यक्ति विशेष में प्रतिष्ठित कर सीमित नहीं किया गया है, अपितु पंच महाव्रतधारी जितने भी संत-सतियाँ हैं वे सब गुरु पद पर स्थापित किये गये हैं । इस अपेक्षा से हमने अपने आराध्य देव अरिहन्त प्रभु को भी प्रथम गुरु मान्य किया है। महामंत्र के पाँचों पदों में सिद्ध भगवान् अरूपी होने से शेष को गुरुपद के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि महामंत्र के पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिये प्रथम पायदान साधु पद ही है। इस अपेक्षा से अरिहन्त भगवान्, आचार्य, उपाध्याय को भी गुरु पद में सम्मिलित किया गया है। जब अरिहन्तो महदेवो का पाठ बोलते हैं उसमें हम पंच महाव्रतधारी, समिति - गुप्ति आदि गुणों से परिपूर्ण
ही अपना गुरु मान्य करते हैं। इसमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं जोड़ा जा सकता ।
वैदिक तथा श्रमण परम्परा में गुरुपद को अति महत्त्वपूर्ण मानने के उपरान्त भी श्रमण - परम्परा में कतिपय मौलिक भिन्नताएँ हैं । श्रमण परम्परा में कोई गुरु पद पर तभी प्रतिष्ठित होता है जब वह पंचमहाव्रत आदि गुणों को धारण कर लेता है तथा भगवान की आज्ञा में विचरण करता है। सभी पंच महाव्रतधारी संत-सतियाँ जी को गुरु रूप में मान्यता दी गई है। इस प्रकार एक में अनेक व अनेक में एक का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो व्यक्ति में गुणपूजा का भाव लुप्त होकर व्यक्तिनिष्ठ स्थान ले लेगी, जो अनर्थ का कारण बनेगी । यद्यपि आज स्थानकवासी समाज में भी
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