Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || ईयां भाषा एषणा, ओळखजो आचार।
गुणवंत साधु देखने वंदजो बारम्बार|| जैन परम्परा में अनगार धर्म के पालक अनगार भगवंतों की विशेषताएं श्री सूर्यमुनिजी म.सा. ने अपने स्वरचित गीत में इस प्रकार गुम्फित की है -
ऐसे निर्ग्रन्थ गुरुजी हमारे, जो आप तिरे पर तारे।।टेर।। अज्ञान तिमिर भोघट भीतर, सो सब टारन हारे। मोह निवार भये जग त्यागी, स्वपर स्वरूप निहारे।।1।। स थावर की हिंसा परिहर, अनुकम्पा रस धारे। झूठ अदत्त परिग्रह आदि, अष्टादस अघ टारे।।2।। नव विध वाड़ सहित ब्रह्मचारी, नारी नागन वारे। बाह्य आभ्यन्तर एक स्वभावे, चरण करण मग धारे।।3।। ध्यान धर्म का ध्यावे निशदिन, आरत रौद्र निवारे। आनन्द कन्द चिदानन्द सुमरे, अघ मळ पंक प्रजारे।।4।। द्वाविंश परीषह पंच इन्द्रिय को, जीते सम अनगारे। घोर तपोधन सम दम पूरे, पण परमाद विडारे।।5।। श्रमण धर्म में लीन रहे नित, दिनकर धर्म उजारे। क्षमा दया वैराग्य समाधि, धारक तत्व विचारे।।6।। अनाचीर्ण बावन नित टाळे, समिति गुप्ति दृढ़ पारे।
नन्दसूरि रज “सूर्य मुनि' यों, सद्गुरू उच्चारे।।7।। जिसमें न तो दर्शन है और न चारित्र गुण ही है, जिसकी श्रद्धा प्ररूपणा खोटी है, जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति से रहित है, जिसके आचरण सुसाधु जैसे नहीं है, उसे लौकिक विशेषता के कारण अथवा साधु वेष देखकर सुसाधु मानना उचित नहीं। कौन गुरु हैं कौन नहीं, इसका विवेचन हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में इस प्रकार दिया है -
महाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः। सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः।।
-योगशास्त्र, 2.8 पाँच महाव्रतधारी, परीषहादि सहन करने में धीर, माधुकरी वृत्ति से भिक्षा करके जीवन चलाने वाले समभाव युक्त एवं धर्मोपदेशक गुरु माने जाते हैं।
सर्वामिळाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः। अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशका गुरवो न तु ||
-योगशास्त्र 2.9
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