Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
10 जनवरी 2011
जिनवाणी
1
मानते हुए कहती हैं कि उनकी कृपा से ही उनको ईश्वर के दर्शन हुए हैं
मीरा ने गोविन्द मिलायाजी, गुरु मिलिया रैदास ।
(मीरां)
इसी तरह रैदास संत मिले मोहि सतगुरु, दीन्हीं सुरत सहदानी |
(मीरां)
स्पष्ट है कि 'सुरत शब्द' का ज्ञान गुरु कृपा से ही होता है। उन्होंने एक पद में सतगुरु की महत्ता को दर्शाते हुए कहा है कि नव-विवाहित आत्मा जब प्रभु के धाम पहुँचती है तो अन्य सुहागिन आत्माएँ उससे पूछती हैं कि तू इतने समय तक कुँआरी क्यों रही ? आत्मा कहती है कि उसे अबतक सतगुरु नहीं मिले थे। सतगुरु ही उसके लिए वर ढूँढ़ कर, विवाह का लगन निश्चित करके उसका हाथ प्रभु रूपी वर के हाथ में दे सकते थे । अर्थात् प्रभु का मिलाप तब तक नहीं हो सकता जब तक सच्चा सद्गुरु नहीं मिलता
सुरता सवागण नार, कुंवारी क्यूँ रही । सतगुरु मिलिया नांय, कुंवारी बीरा यूं रही । सतगुरु बेगि मिलाय, छिन में सात्वा सोडिया। झटपट लगन लखाय, ब्याव बेगो छोड़िया ।।
उस दुर्लभ पदार्थ को पाकर संसार सागर से पार उतरा जा सकता है -
Jain Educationa International
(मीरां)
ने
सतगुरु को इस भवसागर से पार उतारने वाला कहा है, क्योंकि सतगुरु से जो नाम मिलता है,
-
पायो जी मैं तो राम रतन धन पायो । बस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो । तकी नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो । (मीरां)
97
गोस्वामी तुलसीदास भी सद्गुरु को हरिरूप ही मानते हैं। उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कृति 'रामचरित 'मानस' में गुरु की वंदना करते हुए कहा है -
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कट निकट ||
(रामचरित मानस, तुलसीदास)
तुलसीदास ने गुरु के चरणकमलों की रज को संजीवनी जड़ी के समान माना है जो संसार के समस्त रोगों को नष्ट करती है। गुरु के चरणों की वह धूलि भक्त के मन के मैल को दूर करने वाली और उसका तिलक से गुणों के समूह को वश में करने वाली है -
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ||
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org