Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011
जिनवाणी प्रभु गुन गाय रे, यह ओसर फेर न पाय रे। मानुष भव जोग दुहेला, दुर्लभ सतसंगति मेला।
सब बात भली बन आई, अरहन्त भजो रे भाई।।" दरिया ने सत्संगति को मजीठ के समान बताया और नवल राम ने उसे चन्द्रकान्तमणि जैसा बताया है। कवि ने और भी दृष्टान्त देकर सत्संगति को सुखदायी कहा है
सत संगति जग में सुखदायी है। देव रहित दूषण गुरु सांचौ, धर्म दया निश्चै चितलाई।। सुक मेना संगतिनर की करि, अति परवीन बचनता पाई। चन्द्र कांति मनि प्रकट उपल सौ, जल ससि देखि झारत सरसाई। लट घट पलटि होत षट पद सी, जिन को साथ अमर को थाई। विकसत कमल निरखि दिनकर कों, लोक कनक होय पारस छाई।। बोझा तिरै संजोग नाव के, नाग दमनि लखि नाग न खोई। पावक तेज प्रचंड महाबल, जल मरता सीतल हो जाई।। संग प्रताप भुयंगम जै है, चंदन शीतल तरल पठाई।
इत्यादिक ये बात धणेरी, कौलो ताहिं कहौ जु बढ़ाई।।" इसी प्रकार कविवर छत्रपति ने भी संगति का माहात्म्य दिखाते हुए उसके तीन भेद किये हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन साधकों ने विभिन्न उपमेयों के आधार पर सद्गुरु और उनकी सत्संगति का सुन्दर चित्रण किया है। ये उपमेय एक दूसरे को प्रभावित करते हुए दिखाई देते हैं जो निःसन्देह सत्संगति का प्रभाव है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि जैनेतर कवियों ने सत्संगति के माध्यम से दर्शन की बात अधिक नहीं की, जबकि जैन कवियों ने उसे दर्शन मिश्रित रूप में अभिव्यक्त किया है। सन्दर्भ:1. बनारसी विलास, पंचपदविधान 2. हिन्दी पद संग्रह, रूपचन्द, पृ. 48 3. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117 4. बनारसी विलास, पृ. 24
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 48 6. बनारसी विलास, भाषा, मु. पृ. 20,27
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