Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
पांडे रूपचन्द गीत परमार्थी में आत्मा को सम्बोधते हुए सद्गुरु के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सद्गुरु अमृतमय तथा हितकारी वचनों से चेतन को समझाता है
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चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै । सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, आरु तुमहू हौ घानी ।
तबहूं तुमहिं न क्यों हू आवै, चेतन तत्त्व कहानी ॥ 25
दौलतराम जैन गुरु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए चिंतित दिखाई देते हैं कि उन्हें वैसा गुरु कब मिलेगा जो कंचन - कांच में व निंदक-वंदक में समताभावी हो, वीतरागी हो, दुर्धर तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, संयमी हो। ऐसे ही गुरु भवसागर से पार करा सकते हैं
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मोहि श्री गुरु मुनविर करि हैं भवोदधि पारा हो । भोग उदास जोग जिन लीन्हों छाड़ि परिग्रह मारा हो । कंचन - कांच बराकर जिनके, निदंक-बंधक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक् निजघर मन वचन कर धारा हो । ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरे पावस तरुतर ठारा हो । करुणा मीन हीन त्रस थावर ईयपिथ समारा हो । मास छमासउपास बासवन पासुक करत अहारा हो । आरत रौद्र लेश नहिं जिनके धर्म शुक्ल चित धारा हो । ध्यानारूद गूढ़ निज आतम शुद्ध उपयोग विचारा हो । आप तरहि औरनि कौ तारहिं भव जल सिन्धु दौलत ऐसे जैन जतिन को निजप्रति धोक
अपारा हो । हमारा हो ।
(दौलत विलास, पद 72 )
द्यानतराय को गुरु के समान और दूसरा कोई दाता दिखाई नहीं दिया । तदनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता, मेघ के समान सभी पर समानभाव से निःस्वार्थ होकर कृपा जल वर्षाता है। नरक, तिर्यंच आदि गतियों से जीवों को लाकर स्वर्ग-मोक्ष में पहुँचाता है अतः त्रिभुवन में दीपक के समान प्रकाश करने वाला गुरु ही है । वह संसार-सागर से पार लगाने वाला जहाज है । विशुद्धमन से उसके पद पंकज का स्मरण करना चाहिए।"
कवि विषयवासना में पगे जीवों को देखकर सहानुभूति पूर्वक कह उठता हैजो तजै विषय की आसा, द्यानत पावै विश्वासा। यह सतगुरु सीख बनाई काहूं विरले के जिय आई || "
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