Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || जो ज्ञानी हो और आरम्भ तथा परिग्रह से विरत हो उसे गुरु बनाना चाहिए। साधना के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए साधक के हृदय में श्रद्धा की दृढ़ता तो चाहिए हो, गुरु का पथ-प्रदर्शन भी आवश्यक है। गुरु के अभाव में अनेक प्रकार की भ्रमणाएं घर कर सकती हैं, जिनसे साधना अवरुद्ध हो जाती है और कभी-कभी विपरीत दिशा पकड़ लेती है। अतः जिसे हम गुरु के रूप में स्वीकार करना चाहें पहले उसकी परीक्षा कर लें और जो 'छत्तीसगुणो गुरुमज्झ' की कसौटी पर खरा उतरे उसे ही गुरु रूप में स्वीकार करें। 6. जैन साधुता :
जैन धर्म ने देश, काल एवं व्यक्ति की सीमाओं को तोड़ कर कहा - जो साधना करे वह साधु है। जो राग-द्वेष को जीतने की साधना करता है, अपने विकारों और कषायों का दमन करता है, मन को समता एवं शांति में रमाता है वह साधु है। जैन परम्परा में समभाव की साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। समता ही श्रमण संस्कृति का प्राण है। इसीलिए प्रभु फरमाते हैं - समयाए समणो होइ' सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता बल्कि समता का आचरण करने से श्रमण होता है। राग द्वेष की क्षीणता, विकारों की परिमार्जना और समभाव की संवृद्धि, यह जैन साधुता की मूल निधि है।
जैन साधु की साधना 'अत्तताए परिव्वए"केवल आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए ही होती है। उनका एक मात्र ध्येय समस्त बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए होता है। उनका प्रयत्न कम्मणिग्घायणटाए अब्भुटिठ्या कर्म बन्धनों को नष्ट करने का ही होता है, वे निर्दोष आहार पानी लेते हैं
और शरीर को पोषते हैं, वह भी मोक्ष साधना के लिए ही है। जैन साधु की सारी जिन्दगी सारे प्रयत्न, सभी क्रियाएं मोक्ष के लिए ही होती हैं। प्रभु जैन साधुओं की निर्दोषवृत्ति के लिए फरमाते हैं -
अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहण देसिआ।
मुक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा।।" जिनेश्वर देवों ने मोक्ष-प्राप्ति के साधनभूत साधु के शरीर के निर्वाह हेतु साधुओं के लिए निर्दोष भिक्षावृत्ति बताई है।
निर्ग्रन्थ श्रमण मोक्ष के लिए ही प्रव्रजित होता है अर्थात् कर्म-बन्धनों को काट कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही जैन साधुता अंगीकार की जाती है। मोक्ष मार्ग के आराधक मुनियों का इस प्रकार का उन्नत आचार, जिनशासन के अतिरिक्त अन्य मतों में कहीं भी नहीं कहा गया है। जो लोक में अत्यन्त दुष्कर है, जिनशासन के अतिरिक्त अन्य मतो में ऐसा आचार न तो भूतकाल में कहीं कहा हुआ है और न आगामी काल में कहीं होगा और न ही वर्तमान काल में कहीं है।'
जिनशासन में गुण और योग्यता का विकास करके हर व्यक्ति चरम-परम पराकाष्ठा को प्राप्त कर सकता है। अतः ‘सुसाहुणो गुरुणो' की परिभाषा अपने आप में पर्याप्त है। जीवन का उत्कर्ष बिना गुरु के
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