Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 73
संकल्प-विकल्प मिटे मन के, गुरुवर को जब मैंने देखा
श्री सम्पतराज चौधरी
(तर्ज : जीवन उन्नत करना चाहो तो, सामायिक साधन कर लो)
(वीर छन्द) भव-भव में भटक रहा हूँ पर, मुझको न मिली सुख की रेखा । संकल्प-विकल्प मिटे मन के, गुरुवर को जब मैंने देखा ।। काया-माया के बंधन में, मैं झूम रहा हो मदमाता। नित नई वासनाएँ जगतीं, उनकी पूर्ति में लग जाता ।। संसार बढ़ा करके प्रतिपल, मैं रोज नये दुःख लेता था। जग में जिसको अपना कहता, वह छोड़ मुझे चल देता था।। मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर की ममता में था डूबा । आकुलता से बचने मुझको, मिलता न कोई था मनसूबा ।। मैं समझ नहीं पाया अब तक, जिन की वाणी क्या कहती है। जीवन की उज्ज्वलता भरने, इसमें तो बसते मोती हैं।। परिग्रह की आकुलता तजकर, गुरुवर के चरणों में आया। निज वैभव की मस्ती पाने, अब आया जग की तज छाया ।। तुम भक्तों को क्या देते हो? करता हूँ ऐसा प्रश्न नहीं। भगवान बनाते भक्तों को, सुनली मैंने यह बात कहीं।। इसलिये तुम्हारे चरणों में, आलोकित करने अन्तर को। अब आया तेरी छाया में, बरसाओ अपने निर्झर को ।। सब अन्तर कलुष मिटे मेरे, उसमें तुम सम्यक् नीर भरो। चैतन्य निलय में मेरे तुम, दुर्लभ बोधि का ज्ञान भरो।। हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, जब जग के प्राणी सोते हैं। दिन के अज्ञान-अंधेरे में, अर्जित धन को भी खोते हैं।। दिन-रात बोधि की ज्योति में, तुम शान्त सुधारस पीते हो।
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