Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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9. हित-सम्पादकम्
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यह काव्य मिथ्या रूढ़ियों का खण्डन करता है। क्रिया-काण्डियों की अविचारित गतानुगतिकताओं के विरुद्ध इस काव्य में क्रान्तिकारी घोषणा की गयी है । जातीयता के अहंकार के मद में डूबने वाले अहंकारियों के लिए अहंकार का खण्डन करने वाला है । व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है । व्यक्ति को पापी से पाप से घृणा करनी चाहिए । इन सूत्रों को ध्यान में रखकर इस काव्य की रचना हुई है । आज के आधुनिक तर्कशील व्यक्तियों के लिए यह काव्य बहुत ही पसन्द आयेगा । चारों पुरुषार्थो का सटीक वर्णन इस काव्य में है । सामाजिक एवं पारिवारिक रीति-रिवाजों को भी इस काव्य में समाविष्ठ किया गया है । इस काव्य की मुख्य विशेषता है कि अपनी तर्कणाओं की पुष्टि कवि ने पूर्वाचार्यों द्वारा आगम में कथित सटीक उदाहरण देकर की है । जाति के मद में डूबने वाले लोगों ने आगम में कथित जिन बातों को गौण कर दिया था, कवि ने उन बातों को निर्भीक होकर प्रस्तुत कर दिया है। यह लघु काव्य क्रान्तिकारी है एवं मिथ्याकुरीतियों का निराकरण और सम्यक् रीति-रिवाजों की स्थापना करने वाला है । इस काव्य में 159 श्लोक हैं ।
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यह ग्रन्थ भी महाकवि ज्ञानसागर जी के द्वारा दीक्षा के पूर्व लिखा गया था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था ।
हिन्दी - साहित्य
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10. भाग्य परीक्षा
जैन दर्शन में कथित धन्य कुमार के प्रसिद्ध कथानक के आधार पर इस काव्य को रचा गया है । इस काव्य का काव्यनायक धन्य कुमार है, जिनका जीवनआत्मीयजनों की प्रतिकूलता में पल्लवित होता है । फिर भी अपने पुण्य के कारण अपने प्रतिद्वन्दियों के लिये यह सबक सिखाता है कि जिनके भाग्य में पुण्य की सत्ता है, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है । कर्तव्य परायणता एवं परोपकार जीवन का धर्म है । सत्यवादिता एवं सहिष्णुता जीवन का प्राण है। त्याग ही जीवन का व्यसन है एवं कर्मठता मानवीय गुण है । इस समस्त बातों के लिए महाकवि ने इस काव्य में वर्णन करके असहिष्णु मानव के लिए शिक्षा दी है । इस काव्य में 838 पद
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इस काव्य को आचार्य ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा । ब्रह्मचारी अवस्था में आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था ।
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